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“हिन्दू धर्म, जो कि सबसे अधिक संदेही संशयी भी है और सबसे अधिक आस्था वाला भी है| सबसे संशयी इसलिए क्योंकि इसने सबसे अधिक प्रश्न पूछे हैं और सबसे अधिक प्रयोग किये हैं| सबसे अधिक आस्था वाला इसलिए क्योंकि इसको सबसे गहरी अनुभूति है और सबसे विविध और सकारात्मक आध्यात्मिक ज्ञान है| वह वृहद् हिन्दू धर्म जो कि कोई रूढी या रूढ़ियों का समूह नहीं बल्कि जीवन का एक सिद्धांत है| जो कि कोई सामजिक ढांचा नहीं बल्कि भूत एवं भविष्य के सामाजिक विकास की आत्मा है| जो किसी को भी अस्वीकार नहीं करती परन्तु हर किसी को जाँचती और अनुभव करती रहती है और जाँचने और अनुभव करने के पश्चात उसे आत्मा के प्रयोग में लाती है| इस हिन्दू धर्म में हम भविष्य के विश्व धर्म की नींव देखते हैं| इस सनातन धर्म के कई ग्रन्थ हैं: वेद, वेदान्त, गीता, उपनिषद्, दर्शन, पुराण, तंत्र… पर उसका सबसे असली, सबसे प्रमाणिक ग्रन्थ ह्रदय है जिसके अन्दर वह शाश्वत तत्व रहता है…”श्री अरबिंदो
असली ‘सेकुलरवादी’?
हिन्दू अक्सर भारत के सेकुलरवादियों पर हिन्दू-विरोधी कह कर प्रहार करते हैं| वास्तव में यह उनका अकेला हथियार है| तुलनात्मक रूप से वे कहते हैं कि हिन्दू धर्म हमेशा सच्चे रूप में सेकुलर रहा है| वास्तव में सेकुलरवाद से भी अधिक सेकुलर| सेकुलरवादी अपने आप को उदारवादी, मानवतावादी, पश्चिम-पक्षी प्रगतिशील, लोकतंत्रवादी, समाजवादी और यहाँ तक कि नास्तिक की तरह भी सोचना पसंद करते हैं| आखिरी की चार श्रेणियां सीधे मार्क्सवादी स्त्रोतों से ली गयी हैं और इसीलिए वे उसी तरह के अपशब्दों का प्रयोग करती हैं| भारत में सेकुलरवादियों के शत्रु हिन्दू फ़ासिस्ट और हिन्दू साम्प्रदायिक हैं| पश्चिम की राजनैतिक शब्दावली में ‘फासीवाद’ शब्द अव्यवस्थित और जटिल रहा है| दूसरी ओर ‘कम्युनल’ शब्द में हम किसी विचित्र वस्तु को देखते हैं जो कि कभी-कभी घृणास्पद भी हो जाती है| ‘कम्युनल’ का अर्थ कम्यून से है, एक वैकल्पिल आदर्श समाज, एक यूटोपिया बनाने का प्रयत्न|
इसके कई प्रयास हुए हैं, जैसे कि आत्म-निर्भर बनने के लिए जैविक खेती करके शाक-सब्जी उगाना जो कि पर्यावरण के अनुसार भी उर्पयुक्त है| एक शाकाहारी जीवनशैली अपना लेना जिससे जीवों का सम्मान किया जा सके| प्राकर्तिक उत्पाद बनाना बिना किसी कृतिम सामग्री के| पर इसका सबसे बड़ा प्रयास है एक नया समाज बनाना जहाँ पर सभी योगदान देते हैं और किसी का भी शोषण नहीं होता|
इसके प्रतीक हमें दिखते हैं हिप्पी आन्दोलन और बाद के ‘न्यू ऐज’ आन्दोलन में| जो लोग इन आन्दोलनों के भाग रहे हैं उन्हें भारतीय सेकुलरवादियों के ‘कम्युनल’ शब्द की विकृति से बहुत अचम्भा अथवा घृणा होगी| भारतीय सेकुलरवादियों ने ‘कम्युनल’ शब्द का अर्थ विकृत कर के उस फासीवाद, जनजातियवाद और असहिष्णुता के बराबर ला दिया है जिससे ‘न्यू ऐज’ वाले लोग बहुत घृणा करते हैं| तो जहाँ पर भिन्न-भिन्न कम्युनल प्रयोग अलग अलग रूप और स्तर में सफल हुए हैं, यह बहुत ही भौंडी बात है कि भारत के दम्भी सेकुलरवादियों ने इस शब्द को बिलकुल ही भिन्न सन्दर्भों में प्रयोग किया है जिसका कि इसके सही अर्थ से कोई मेल नहीं है| और इसी के साथ उन्हें साम्यवाद से कोई भी समस्या नहीं है जहाँ पर ‘कम्यून’ गुलाम-मजदूर कैम्पों का ही एक दूसरा स्वरुप थे और सेंकड़ों लोगों के शोषण की मशीन थे|
भारत अपने आप को एक सेकुलर समाजवादी गणतंत्र बताता है, एक लोकतांत्रिक समाज जहाँ पर कोई भी अल्पसंख्यक समूह अपने आप को हांशिये पर ना पाए| पर इसका सत्य से कितना नाता है? वास्तव में, जब भारतीय ‘सेकुलर’ शब्द का प्रयोग करते हैं तो सच में उनका क्या मतलब होता है? पश्चिमी लोकतंत्र भारत के इस सेकुलरवाद को वहाँ के अंग्रेजी बोलने वाले छोटे से अभिजात वर्ग के द्वारा जानता है| भारत में अब उन समूहों की महामारी सी आ गयी है जिन्हें में इंग्लिश राइटर फोरम कहूँगा| थोड़े-थोड़े समय में इन महत्वाकान्छी बुद्धिजीवियों की लहर में से एक बिना चेहरे और बिना स्वाद के जीव की प्रजाति निकलती है| उनमें कई समानताएँ हैं|
वे अपने आप को बड़ा ही सौभाग्यशाली मानते हैं क्योंकि वे अंग्रेजी में बात कर लेते हैं| वे समझते हैं कि उनको इतनी जानकारी है कि वे बाहर फैले गरीबी के नासूर को एक यूटोपिया के उजाले में भुला सकते हैं| और वे घंटों तक पूर्णतः बकवास करके रहते हैं| अक्सर यह बकवास उन शब्दों का रूप ले लेती है जो एक साथ मिलकर निरर्थक हो जाती है| यह बात जितनी सन्दर्भ के परे हो उतना ही अच्छा, क्योंकि वे नहीं चाहते कि कभी भी ये विचार सत्य का रूप ले कर व्यवहारिक रूप में अपनाए जा सकें|
यह बात बहुत ही अनुभवहीन लग सकती है पर जब हम उन युवाओं को देखते हैं जो कॉल-सेंटर पर १२-१२ घंटे की कठिन शिफ्ट करते हैं और फिर भी उतना धन अर्जित करते हैं जितना कि उनके माता-पिता अपने युग में सोच भी नहीं सकते थे और फिर ये युवा अपने समाज के नियमों को तोड़ते हैं – कोकीन ले कर, शराब में धुत्त हो कर, या फिर अपनी कंपनी की टॉयलेट में सम्भोग करने का प्रयत्न कर के| उन्हें ऐसा ही लगता होगा कि दशकों के आर्थिक दुष्प्रबंधन को उनके जैसे एक-आयामी, बिना चेहरे के यांत्रिक जीव ठीक कर सकते हैं| पर सबसे अधिक वे अपने आप को प्रगतिशील, उदारवादी और सेकुलर समझते हैं; आधुनिक भारत का वह सर्वव्यापी मन्त्र| पर सेकुलरवाद से उनका क्या अर्थ है? इसका सृजन कैसे हुआ?
सेकुलरवाद का अर्थ
सेकुलरवाद का अर्थ है रिलिजन[1] का बहिष्कार जिसका भारत में अर्थ है सार्वजनिक जीवन से निष्कासन| देश विभाजन के आघात के कारण देश के नेताओं ने अपने लोगों को साझी नागरिकता पर जोर देने के लिए उत्प्रेरित किया बजाय कि उनके रिलीजियस भेदों पर जोर देने पर, जिस कारण से पाकिस्तान का उदय हुआ था| इस तरह से भारत और पाकिस्तान बिलकुल विपरीत थे| भारत जैसे विविध देश में प्रारम्भ में यह नीति बिना लाभ की नहीं थी| आखिरकार इंडोनेशिया के प्रथम प्रधान मंत्री सुकर्णो ने भी अनुभव किया कि भाँती-भाँती की भाषाओं, आस्थाओं और जीवनशैलियों वाले उनके द्वीप राष्ट्रों को एक सूत्र में बाँधने का एक ही तरीका था – पंचशील जैसा एक साझा मूल्य तंत्र| सुहार्तो, जिन्होंने सुकर्णो को अपदस्त किया, सोचते थे कि लोगों पर लौह हस्त से राज करने से वे इन सिद्धांतों पर बने रहेंगे जिन्हें कि कुछ लोग सेकुलर कहेंगे क्योंकि उन्होंने राष्ट्र के प्रति निष्ठा को रिलीजियस जनजातिवाद को जीतने के लिए किया| इस तरह से राष्ट्र-निर्माण के लिए सेकुलरवाद का प्रयोग करने में नेहरु ही अकेले नहीं थे| इसीलिए अब भारत में हर पार्टी यह दावा करती है कि वह सेकुलर है यहाँ तक कि वो पार्टियाँ भी जो धार्मिक/ रिलीजियस हैं|
यहाँ तक कि हिन्दू-झुकाव वाली पार्टी भा.ज.पा. भी यह दावा करती है कि वह ‘सच्चे’ सेकुलरवाद का प्रतिनिधित्व करती है, न कि अपने विरोधियों के ‘नकली’ सेकुलरवाद का| निश्चय ही वामपंथी पार्टियाँ यह दावा करती हैं कि भा.ज.पा., आर.एस.एस., वि.हि.प. और बजरंग दल जैसे फासीवादी, दक्षिणपंथी और हिन्दू साम्प्रदायिक दलों के विरुद्ध वे ही सेकुलरवाद की रक्षक हैं| स्वतंत्रता के बाद से राजनैतिक मुख्यधारा में प्रभुत्व रखने वाली कांग्रेस पार्टी ने भारत को एक-पार्टी का राज्य बना दिया है| दशकों तक वह राज करने वाली पार्टी रही है| उसने ऐसा, महात्मा गाँधी के चोगे को पहनने का दावा करके और उससे भी अधिक अपने आप को सेकुलरवाद का रक्षक बता कर किया है| हिन्दू हमेशा अपने आप को सेकुलर बताने के लिए उत्सुक रहते हैं और इसे वे उच्च स्वर में प्रसारित भी करते हैं| फिर भी पश्चिमी देशों में कोई भी अपने सेकुलर परिचय पत्र को सिद्ध करने के लिए चिंतित नहीं रहता यहाँ तक कि फ्रांस में भी नहीं जहाँ पर रिलिजन सार्वजनिक जीवन से लगभग बाहर ही है| या तो यह मान लिया जाता है कि आप सेकुलरवादी हैं या फिर यह कि आपको इससे कोई फर्क ही नहीं पड़ता| पर अपने आप को सेकुलर सिद्ध करने की सनक यहाँ पर नहीं है|
इसका सबसे अच्छा उदाहरण है आधुनिक ब्रिटेन में ‘स्वतंत्र’ और ‘वैयक्तिक’ होने का दबाव| सही में तो इस समाज के बड़े हिस्से हमेशा से अधिक निर्भर हैं और एक बुद्धिहीन चक्र के अनाम पुर्जे हैं जो कि अपनी विशिष्टता खो चुके हैं| इसके प्रतिबिम्ब हमें मीडिया और मनोरंजन जगत में कब्र से वापस आये हुए लोगों की कहानियों में और भयानक महामारियों की कथाओं में देखने को मिलते हैं| ये शब्द अपने सही अर्थ खो चुके हैं और अब खोखली पहचान के अलावा कुछ नहीं बचे हैं जिनमें सोचने को हतोत्साहित किया जाता है और इसे कुफ्र माना जाता है| जो हिन्दू सेकुलर होने का दावा करते हैं क्या वे सच में इसका अर्थ जानते हैं? सेकुलर शब्द का प्रयोग बहुत भिन्न-भिन्न सन्दर्भों में हुआ है| फिर भी इसकी उत्पत्ति आश्चर्यजनक रूप से गहरी और रिलीजियस है| सेकुलरवाद हमेशा से आस्था का ही प्रत्यक्षीकरण रहा है जिसको कि किसी परमेश्वर की आवश्यकता नहीं है| पर वह हमेशा ही एक आस्था रहा है और किसी और आस्था की तरह अभी भी है|
हिन्दुओं ने सेकुलरवाद को गर्व से अपना लिया है और उसके सबसे उन्मादी कन्वर्ट बन गए हैं| पर वे यह नहीं जानते कि अपने गैर-रिलीजियस आवरण के बाद भी सेकुलरवाद बस एक और रिलिजन मात्र है जो कि बाकी सभी मतों को कुचलने के प्रयास में और सभी को कन्वर्ट करने के प्रयास में है|
डॉ. रिचर्ड डॉकिंस यू.के. के सबसे प्रतिष्ठावान जीव विज्ञानी हैं और आधुनिक उग्रवादी नास्तिकता के प्रस्तावक हैं| वे वैज्ञानिक बुद्धिवाद वाले सेकुलरवाद को मनुष्यता के भविष्य के एकमात्र रास्ते की तरह देखते हैं| इसको सफल होने के लिए हमें रिलीजियस रूढ़ियों को छोड़ना पड़ेगा जिन्होंने हमें इतिहास में केवल मानसिक उत्पीड़न करने के लिए ही नहीं बल्कि मानवता के कई समुदायों को प्रताड़ित करने के लिए भी उकसाया है| रिलिजन ने दासता को, स्त्रियों के प्रति हीन व्यवहार को, प्रजातिवाद को, बलात्कार, नरसंहार अतवा युद्ध को बढ़ावा दिया है| रिलिजन ने विज्ञान की गति को रोका है| विज्ञान ने और चीज़ों के साथ कई बीमारियों का तोड़ निकाला है जो एक समय में प्राणघातक थीं जैसे कि पोलियो, चेचक, कोढ़, मलेरिया आदि| रिलिजन के पास बस प्रार्थना ही थी| रिलिजन के प्रति डॉकिंस की जो शत्रुता है वह सैम हेरिस, डेनियल डेनेट, और स्वर्गीय क्रिस्टोफर हिचंस भी अनुभव करते थे|
इन दुर्जेय व्यक्तिवों के पहले आये कईयों में से एक थे बर्ट्रेंड रसेल जिन्होंने ने १९२७ में अपनी पुस्तक ‘Why I am Not a Christian’ के प्रकाशन से सबको क्षुब्ध कर दिया था| इसमें लिखा था:
“मैं जान बूझ कर कहता हूँ कि ईसाइयत जैसा कि इसे चर्चों में संगठित किया गया है, नैतिक विकास का सबसे बड़ा शत्रु रहा है और आगे भी रहेगा|”
अगर हमें रसेल को और बाद के और भी उग्र सेकुलरवादियों जैसे कि रिचर्ड डॉकिंस को समझना है तो हमें यह समझना पड़ेगा कि सेकुलरवाद आया कैसे| उसका कारण क्या था? रिलिजन में ऐसा क्या था जो विकास को रोके हुए था? वास्तव में क्या यह हर रिलिजन और धर्म का अनुभव था जिसने उस प्रतिक्षेप को जन्म दिया जो सेकुलरवाद बन गया? या फिर यह केवल एक रिलिजन की गलती थी?
“कई लोगों को बहुत आश्चर्य होता है कि हिटलर उन विचारों को सिखाता है जो वे सदैव मानते आये हैं… मध्य युग में ऐसे ही विचार हमें मार्टिन लूथर में देखने को मिलते हैं| उस समय जो जर्मन लोगों के मन और मस्तिष्क में था, उसकी अभिव्यक्ति उन्हें एक व्यक्ति के शब्दों और कार्यों में मिली| जबसे मार्टिन लूथर ने आँखें बंद कीं, हमारे लोगों के बीच कोई भी ऐसा बेटा नहीं आया है| यह निश्चित हो गया है कि हम वे पहले लोग होंगे जो इसका अनुभव करेंगे… मैं यह सोचता हूँ कि अब वह समय बीत गया है जब हम हिटलर और लूथर का नाम एक ही साँस में नहीं ले सकते| वे एक ही श्रेणी में हैं, वे एक ही जैसे सिक्के हैं| [Schrot und Korn] Volkishcher Beobachter, 25 Aug. 1933, [cited from Richard Steigmann-Gall’s The Holy Reich]
सेकुलरवाद की उत्पत्ति
पाँच सौ साल पहले जो ‘चर्च में सुधार’[2] (Reformation) हुआ उससे कैथोलिक चर्च का यूरोप के ऊपर से एकछत्र अधिकार हट गया| ऐसा प्रोटेस्टेंट[3] जैसे ‘विरोधी’ और असहमत ईसाई आन्दोलनों के बनने से हुआ| आधुनिक इवेंजलिकैल्स[4] इसे जनतंत्र, स्वतंत्रता और समानता की ओर पहले तर्कसंगत कदम के रूप में देखते हैं| सच में ऐसा कुछ भी नहीं था| यह बाइबिल के मूल अर्थ पर वापस पहुँचने का एक प्रयत्न था| बाकी सभी झूठ था और खतरनाक काफिरों और मुशरीकों को जन्म देता था| इसका परिणाम था सोलहवीं शताब्दी का स्त्रियों का नरसंहार, जिसमें पीड़ितों का एक ही अपराध था, स्त्री होना| हम इसको ‘विच-बर्निंग’ (विचेस को जलाने) के नाम से जानते हैं| यह उन्नीसवीं शताब्दी तक चलता रहा| अगर हम लिंग समानता की बात करें तो स्त्रियों के नरसंहार के विषय में कैथोलिक ओर प्रोटेस्टेंट चर्च दोनों ही बराबर से दोषी हैं|
प्रोटेस्टेंटिज्म के उदय के बाद हमें दैवी अधिकार का सिद्धांत पहली बार देखने को मिलता है जिसके अनुसार एक शासक का उत्तरदायित्व केवल परमेश्वर को ही है| इसीलिए इंग्लैंड के किंग जेम्स प्रथम ने संसद को जितना हो सका उतना उपेक्षित किया| चार्ल्स प्रथम ने तो उसे पहचानने से ही मना कर दिया जबकि संसद ने उनके विरुद्ध एक गृह युद्ध लड़ा और जीता भी| संसद ने अंत में चार्ल्स का सर काटने का ही निश्चय लिया जब उस विषय पर विवेकपूर्ण वार्तालाप निरर्थक साबित हो गया था|
इससे कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए| जर्मनी के ह्रदय में प्रोटेस्टेंट आन्दोलन और चर्च में सुधार के पीछे मार्टिन लूथर ही मुख्य कारण था| भारत में कट्टर एकेश्वरवादी पंत आर्य समाज विश्वास रखता है कि उनके संस्थापक स्वामी दयानंद भारत के मार्टिन लूथर ही थे जिन्होंने अपनी धरती पर अपने ‘सुधार’ की नींव रखी| अगर हम इस लज्जापूर्ण तथ्य को छोड़ भी दें कि अपने सुधार के लक्ष्य में आर्य समाज बहुत सफल नहीं हुआ और उनकी संस्था निरर्थकता के दलदल में गिर कर शिथिल हो कर पूरी तरह असफल हो गयी, दयानंद के लगातार कम होते हुए और वृद्ध अनुयाइयों को इस बात से सिहर जाना चाहिए कि तिनकों का सहारा लेते हुए अब वे अपने आप को सेकुलर कहने का दावा कर रहे हैं|
पहले हम लूथर से तुलना की बात करते हैं| जर्मनी में थॉमस मुन्तज़र नामक एक रहस्यवादी किसानों की सामंतों से बराबरी की बात करने का दुस्साहस करते थे| मार्टिन लूथर जैसे ‘सुधारक’ ने गर्व से मुन्तज़र के किसानों की नृशंस सामूहिक हत्या का समर्थन किया| इसका लिखित प्रमाण है| एक से अधिक मत जब यह दावा करें कि मताधिकारहीन जनता के एक क्रोधित, इर्ष्यालू पुरुष परमेश्वर के लिए, बलप्रयोग से बप्तिस्मा करने का दैविक लाइसेंस उनके पास है तो परिणाम तो खराब होने ही वाले हैं| कैथोलिक-प्रोटेस्टेंट संघर्ष ने लगभग पूरे यूरोप को तोड़ दिया| इसका परिणाम इस महाद्वीप पर सबसे लम्बे और विनाशक संघर्षों में से एक के रूप में हुआ| यह था थर्टी इयर्स वर (१६१८-१६४८) – तीस वर्ष का युद्ध| हर ओर के सच्ची आस्था वालों ने एक दूसरे का नरसंहार किया और होली रोमन साम्राज्य के जर्मन राज्यों ने फ्रांस, स्वीडन, डेनमार्क आदि देशों और यहाँ तक कि एक बिंदु पर ओटोमन साम्राज्य को भी रक्तपात के इस अविश्वसनीय भंवर में घसीट लिया| अनुमान लगाया जाता है कि केवल जर्मनी में इसके कारण जनसँख्या में २५% से लेकर ४०% तक कमी आयी| वुर्त्तेम्बर्ग में एक-चौथाई जनसँख्या बलि चढ़ गयी|
ब्रान्डेनबर्ग में आधी जनसँख्या मारी गयी और कुछ इलाकों में तो दो-तिहाई तक लोग मारे गए| जर्मन राज्यों में पुरुषों की जनसँख्या आधी ही रह गयी|
बोहेमिया की जनसँख्या युद्ध, बीमारी, आकाल और प्रोटेस्टेंट चेक लोगों को निष्कासित कर देने से एक-तिहाई कम हो गयी| मेंज़ के निकट का ड्रेस नामक छोटा से गाँव को इस त्रासदी से निकलने में सौ साल लग गए| अकेले स्वीडिश सेनाओं ने ही जर्मनी में २,००० महल, १८,००० गाँव और १,५०० शहर नष्ट कर दिए, जो कि जर्मनी के शहरों का एक-तिहाई भाग था| महामारी ने भी जनता को टाईफस और हैज़े से आहत किया| धरती पर यह नर्क केवल वेस्टफालिया की शान्ति संधि से समाप्त हुआ| जिन संप्रभु राज्य के सिद्धांतों को हम आज भी मूल मानते हैं उनकी नींव वेस्टफालिया की संधि में ही रखी गयी थी| यूरोप में ईसाई राज्यों के बीच में यह अंतिम युद्ध था|
रिलिजन पूरी तरह से अस्वीकार तो नहीं किया गया था पर यथार्थवाद ने यह सुनिश्चित कर दिया था कि नए वातावारण में अधिक सहिष्णुता होगी| ब्रिटिश लेखर जॉर्ज जैकब होलिओक ने १८५१ में पहली बार ‘सेकुलरवाद’ शब्द का प्रयोग किया था| यह विचार पिछली शताब्दियों के उन्मुक्त चिंतन का परिणाम था जिससे कि चर्च बेचैन थी पर उसको पूर्णतः रोक नहीं सकती थी जैसा कि तीस वर्ष के युद्ध ने प्रमाणित कर दिया था| उन उन्मुक्त विचारकों में जो प्रभावी ईसाई विचारधारा से परे गए – स्पिनोज़ा, जॉन लॉक, वोल्तैर, रूसो और थॉमस पेन थे| ये एनलाइटनमेंट[5] (ज्ञानोदय) के विचारक थे जिन्होंने ईसाई रूढी के तंग बंधन से मानव चिंतन को मुक्त करने का प्रयास किया| वोल्तैर फ्रांस में इस समूह के प्रमुख प्रवर्तक थे| वे देववाद में विश्वास रखते थे और हस्तक्षेप करने वाले परमेश्वर के बजाय वे एक स्वतंत्रता प्रदान करने वाले परमेश्वर में विश्वास रखते थे| सेकुलरवाद की नींव को उन्होंने एक प्रसिद्द नारे में संक्षेप में दिया, “उस अभिशापित वस्तु को समाप्त कर दो” – उनका अर्थ कैथोलिक चर्च से था| सेकुलरवाद, मानवतावाद और तर्कवाद जैसे एनलाइटनमेंट के प्रमुख मूल्यों की यह एक महत्त्वपूर्ण नींव है| कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट चर्च दोनों के विरुद्ध इस विचार का बाद में विकास हुआ|
सिमटता हुआ रिलिजन
“वह क्रान्ति एक रूमानी आध्यात्मिक विद्रोह था, ईसाई परमेश्वर के स्थान पर जेकोबीन परमेश्वर को स्थापित करने का प्रयत्न| तर्क का आह्वान एक नए वैयक्तिक परमेश्वर के लिए हलके रूप से छुपाया हुआ एक प्रयत्न था| रॉब्सपियरे नास्तिकता से घृणा करते थे और उसे राजतन्त्र के नैतिक पतन के चिन्हों के रूप में देखते थे| इसके बजाय वे एक ऐसे “शाश्वत पुरुष में विस्वास रखते थे जो देशों के भविष्य को गहराई से प्रभावित करता था और जो कि फ्रांसीसी क्रान्ति की व्यक्तिगत रूप से निगरानी करता था, एक बड़े विशिष्ट रूप में| क्रान्ति के सफल होने के लिए, रॉब्सपियरे को लोगों का सामना करना पड़ता उस परमेश्वर को पहचाने के लिए जो कि उसके द्वारा बोल रहा है और अपनी इक्छा को प्रकट कर रहा है|”” Jonah Goldberg – Liberal Fascism
अपनी पूरे विद्रोही स्वरुप के बाद भी एनलाइटनमेंट ‘चर्च में सुधार’ का ही उत्पाद था| प्रोटेस्टेंटिज्म ने कैथोलिक नियमों को और संतों की पूजा को मनुष्य और परमेश्वर के बीच में अनचाहे अवरोध कहकर अस्वीकार कर दिया था| संत पूजा को वो पगानिज्म (बहुदेवादी मूर्तिपूजा) का अवशिष्ट मानते थे और वे सही भी थे| इसीलिए क्रोम्वेल की प्यूरिटन (ईसाई कैथोलिक शुद्धतावादी) तानाशाही ने क्रिसमस तक को प्रतिबंधित कर दिया था| प्रोटेस्टेंटिज्म ने बाइबिल की केन्द्रीयता पर जोर दिया और केवल बाइबिल को ही परमेश्वर की वाणी और रिलिजन का आधार कहा| एनलाइटनमेंट विचारकों ने इस सिद्धांत को हर रिलिजन/ धर्म पर लागू कर दिया| जब प्राच्यविद भारत आये और उन्होंने संस्कृति का वर्गीकरण करना प्रारम्भ किया, तो उन्होंने अधिकतर रीतियों और परम्पराओं को अनदेखा कर दिया और केवल ग्रंथों पर ही अपना ध्यान दिया| जब उनका सामना अचंभित कर देने वाले उस ऐक्य हिन्दू धर्म से हुआ तब उसको मापने के लिए उनके पास कोई और परिपेक्ष्य था ही नहीं| धार्मिक ग्रन्थ जैसे वेदों को ही उन्होंने हिन्दू धर्म का सिद्धांत माना| बाकी सभी को रीति, परंपरा, जनजातिवाद और संस्कृति माना गया|
सेकुलरवाद को भारत में परिभाषित करने वाली अभी तक यही सोच है| एनलाइटनमेंट ने पवित्र और पतित में भेद किया, रिलिजन और संस्कृति में भी| पर क्या यह सही था? यूरोप में ग्रन्थ ही सर्वनिम्न स्तर था| प्रोटेस्टेंट्स बाकी सभी को रीति या फिर पेगन/ कैथोलिक रीति मानते थे – उन्मुक्त विचारकों की संस्कृति| पर हम इन सिद्धांतों को मूल ऑस्ट्रलियाई लोगों पर कैसे थोपें जिनके पास आज भी बहुत समृद्ध ब्रह्माण्ड विज्ञान है? क्या इसे केवल किवदंतियाँ कह कर भुला दिया जा सकता है? क्या यह एक ‘रिलिजन’ है जबकि इसके पास कोई अभिलेख नहीं हैं और इसीलिए कोई पवित्र ग्रन्थ नहीं हैं? भारत समेत ये परम्पराएँ कई संस्कृतियों में हज़ारों सालों तक मौखिक रूप से एक पीड़ी से दूसरी पीड़ी तक पहुँचाई जाती रही हैं| एनलाइटनमेंट एक मिला-जुला अनुभव था| कुछ विचारक ईसाइयत-पूर्व की प्राचीन और पेगन परन्तु अति-विकसित ग्रीक और रोमन सभ्यताओं की ओर देखते थे जिसको ईसाइयत ने अंशतः उत्तराधिकार में पाया था| उन्होंने ऐसा चर्च के दम घोटने वाले रूढ़िवादी सिद्धांतों का सामना करने के लिए किया था पर ऐसा करने में उन्होंने यह अनदेखा कर दिया कि लैटिन शब्द ‘religio’ का अर्थ है पूर्वजों की परंपरा| इस तरह से संस्कृति और रिलिजन अवियोज्य और अविभाज्य हैं|
फ्रांसीसी क्रान्ति एनलाइटनमेंट और जकोबिंस का उत्पाद था| जकोबिंस रॉब्सपियरे की अतिवादी पार्टी थी| इस पार्टी ने तख्तापलट को हथिया लिया था और इस सेकुलर गणतंत्र के सबसे निष्ठावान अनुयायिओं का प्रतिनिधित्व करती थी| पुरानी अभिशापित आस्था को नकारते हुए चर्चों के विध्वंस ने तर्क के पंथ (Cult of Reason) को जन्म दिया| जकोबिंस के पास अपना अलग मसीह था – रूसो| वह सत्त्रव्हीं शताब्दी का एक स्विस विचारक था जिसने परमेश्वर की आवश्यकता से छुटकारा पा लिया था और इसके स्थान पर मनुष्य की अभिलाषा के प्रति समर्पण को रख दिया था| यह सिद्धांत उनकी पुस्तक ‘Social Contract’ में प्रतिपादित है| स्वतंत्रता के नाम पर जो भी बंधन पहले लगाए जाते थे उन्हें हटा दिया गया था और इस इक्छा-शक्ति की कोई सीमा नहीं थी| ‘टेरर’ के नाम से जाना गया भयानक सामूहिक हत्याकांड इसका परिणाम था| इस कारण से, इसकी क्रांतिकारी और समानतावादी पहचान के बाद भी फ्रांस कभी भी इस रिलीजियस उन्माद को नहीं दबा पाया|
१९०५ के लैसिस्म के द्वारा रिलीजियस कर्तव्य बोध कैथोलिक चर्च, या फिर किसी और रिलिजन की ओर नहीं बल्कि La France की ओर पहुंचाया गया था| इस दिन तक फ्रांस जान बूझ कर ईसाइयत को सार्वजनिक रूप से प्रकट करने पर रोक लगाता है क्योंकि यह गणतंत्र के सिद्धांतों के विरुद्ध है| ड्र्युफस अफेयर नाम से जाने जाने वाले यहूदी-विरोधी (Anti-Semitic) विवाद में कैथोलिक चर्च और क्रिस्चियन डेमोक्रेट आन्दोलन की जघन्य भूमिका के कारण इस देश के स्थापित रिलिजन के विरुद्ध आक्रामकता शायद समझने योग्य है| पर जिस तरह वोल्तैर ने अभिजात वर्ग को अर्ध-सेकुलर देववाद सिखाया पर कहा कि नौकरों को आज्ञाकारी बनाने के लिए उनका ईसाइयत में विश्वास आवश्यक है, फ्रांस ने कैथोलिक पंथ का रिलीजियस आदेशों जैसे कि ‘वाइट फ़ादर्स’ के द्वारा पूरे साम्राज्य में सक्रियता से प्रचार किया| फ्रांसीसी शक्ति के लिए अल्जीर्स का विशाल कैथेड्रल एक रिलीजियस और साम्राज्यवादी भवन था| क्रान्ति-उपरान्त फ्रांस प्रजातिवाद और यहूदी-विरोध (anti-Semitism) का बौद्धिक गढ़ बन गया| फ्रांसीसी सेना के जनरल अल्फ्रेड ड्र्युफस का, उसके यहूदी होने के कारण, उत्पीड़न कैथोलिक चर्च के लिए गणतंत्र के सामने उसकी सार्थकता जताने का एक बहाना बन गया| ऐसा उसने मध्य-युगीन ईसाई रूढी को जेकोबीन सिद्धांतों से मिला कर एक नए मूलभूत राष्ट्रवाद को बनाकर किया| यह राष्ट्रवाद स्वतंत्रता, समानता और भ्रातत्व के सिद्धांत के विरुद्ध एक वैकल्पिक आस्था थी|
जैसे-जैसे यूरोप का औद्योगीकरण हुआ तर्कवाद कुछ लोगों की निजी विचारधारा से अधिक हो गया| वह वैज्ञानिक विकास के पीछे का इंजन था जिसने सेंकड़ों लोगों को गाँवों से भागते हुए देखा क्योंकि जमींदार नयी फसलों को खेती के नए तरीकों से विकसित कर रहे थे| औद्योगीकरण शायद सबसे बड़ा कारण था कि सेकुलरवाद एक सामूहिक घटना बन गया| सदियों पुराने ग्रामीण समुदायों का अपनी जीविकाओं से हटने से और उनके शहरों में भर जाने से फैक्ट्री तंत्र का पोषण हुआ| उत्पादन के उद्योग स्वयं ही वैज्ञानिक प्रयोगों के उत्पाद थे| तर्कवाद ही विज्ञान था| बाकी सभी कुछ अंधविश्वास और मनुष्य के विकास में बाधा था| विज्ञान उपयोगी था| उससे परिणाम, उपलब्धि और सबसे अधिक विकास मिलता था| रिलिजन ने इसे बाँध कर रखा था| बेल्जियम, फ्रांस और प्रमुख रूप से जर्मनी में धीरे-धीरे राज्य ने लोकहित का और दूसरे कार्यों का बीड़ा उठा लिया, वे कार्य जो एक समय में चर्च के एकाधिकार होते थे| हालाँकि यह एकदम से सुस्पष्ट नहीं होता पर यूरोप के सेकुलर हो जाने के पीछे और अमेरिका के गर्व से अभी भी रिलीजियस रहने के पीछे यह सबसे बड़ा कारण है| अमेरिका में अगर आप निर्धन हैं और आपको मूल चिकित्सा, भोजन और निवास की आवश्यकता है तो केवल परमेश्वर ही आपकी सहायता कर सकता हैं क्योंकि राज्य यह कहता है कि यह आपका दायित्व है|
दूसरा प्रमुख भेद है कि अभी हाल ही तक, ग्रीस, आयरलैंड और यहाँ तक कि ब्रिटेन में भी एक स्थापित राष्ट्रीय चर्च रहा है| इसीलिए एक स्तर पर अमेरिका सेकुलर हो सकता है पर वह अधिक रिलीजियस है| ब्रिटेन में एक स्थापित चर्च है पर वह अपने पुराने स्वरुप की बस छाया सी रह गयी है| सेकुलरवादी एजेंडा इसको भी रास्ते से हटा देना है जिससे कि रिलिजन का सार्वजनिक क्षेत्र में कोई हस्तक्षेप न रह जाए| भारत में जो हो रहा है वह ऐसा नहीं है| भारत में सेकुलरवाद ने हिन्दू धर्म को सार्वजनिक क्षेत्र से हटाने के हर-संभव प्रयास किये| वास्तव में भारत में सेकुलरवाद ठीक उल्टा है और यह दकियानूसी मान्यताओं को बढ़ावा देता है| उदाहरण के लिए इस्लामिक और ईसाई निजी कानून का प्रचलन सेकुलरवाद का प्रतीक माना जाता है| दूसरी ओर वे देश जहाँ पर एक स्थापित चर्च है, वे भी इस प्रकार की छूट नहीं देते हैं (कम से कम अब तक तो नहीं)| फ्रांस के भीतर यह विचार सेकुलरवाद की अवज्ञा मान कर तुरंत कूड़े-दान में फेंक दिया जाएगा| वे रिलीजियस विष जिनके कारण यूरोप में थर्टी इयर्स वॉर हुआ था उन्हें भारत में सेकुलरवाद का अभिन्न अंग बताया जाता है| क्या यह साम्प्रदायिक हिंसा का एक कारण हो सकता है? क्या सामान नागरिकता कानून जिसमें हर नागरिक के लिए एक जैसे ही कानून हों, एक समाधान नहीं है? फिर भी इसको हिन्दू मूलतत्ववादिता कह कर इसकी भर्त्सना की जाती है| तो यहाँ क्या हो रहा है?
सेकुलर देवता
“एक रिलिजन से मेरा अर्थ है सिद्धांतों से सधी एक आस्था, जो कि जीवनशैली पर नियंत्रण रखे, साक्ष्य के परे या विरुद्ध जाए, और भावनात्मक अथवा अधिकारवादी रूप से अंतर्निर्विष्ट की जाए, न कि बौद्धिक रूप से| बोल्शेविस्म एक रिलिजन है: उसके सिद्धांत साक्ष्य के परे या विरुद्ध जाते हैं| मैं इसे सिद्ध करने का प्रयत्न करूंगा| जो बोल्शेविस्म के अनुयायी होते हैं वे वैज्ञानिक प्रमाण से अप्रभावित रहते हैं और बौद्धिक आत्महत्या कर लेते हैं| अगर बोल्शेविस्म के सभी सिद्धांत सही भी होते, तो भी बात नहीं बदलती, क्योंकि उनका निष्पक्ष निरीक्षण संभव नहीं होता| अगर कोई मेरी तरह यह मानता है कि एक उन्मुक्त मस्तिष्क ही मानव प्रगति का इंजन है तो वह मूल रूप से बोल्शेविस्म के विरुद्ध होगा ही, उतना ही जितना कि वह चर्च ऑफ़ रोम के विरुद्ध है|” बर्ट्रेंड रसेल, The Practice and Theory of Bolshevism
मानवतावादी अक्सर यह दावा करते हैं कि उनकी परंपरा महान और प्राचीन है| वे प्लेटो और सुकरात जैसों को अपने पूर्वजों की तरह उद्धृत करते हैं| इन महान दार्शनिकों को किसी भगवान् की आवश्यकता नहीं थी| उन्होंने मनुष्य पर ही अपना ध्यान केन्द्रित किया| मानवतावादी यह भी दावा करते हैं कि प्राचीन काल के चार्वाक और उनके शिष्य उन्हीं के साथी थे| यह अभेद्य तर्क इनता अभेद्य नहीं है| चार्वाक इतने भोगवादी थे कि वे अद्रश्य ही हो गए| ग्रीक दार्शनिक उस समय के थे जब ओलम्पस पर देवताओं, और डेल्फी में किन्नरों और भविष्यवक्ता का अस्तित्व उनके जीवन का माना हुआ और अभिन्न अंग था| अंततः सुकरात को अपने विश्वास के कारण विष पीना पड़ा था| प्लेटो को अक्सर सर्वसत्तावाद का पिता कहा जाता है, क्योंकि ‘The Republic’ में एक ऐसे श्रेणीबद्ध समाज की बात की गयी है जिसमें बच्चों को अपने माता-पिता से छीनकर उनका जबरदस्ती मत परिवर्तित किया जाता है| वास्तव में सेकुलरवादियों ने पूर्व के सहस्त्राब्दी आन्दोलनों के ऊपर अपना आन्दोलन बनाया क्योंकि केवल यही परिप्रेक्ष्य ही उनके लिए जाना माना था| इस कारण से साम्यवादी प्रोटेस्टेंट मिथक से बहुत प्रभावित थे और मार्टिन लूथर के कट्टर शत्रु थॉमस मुन्तज़र से भी| सोलहवीं शताब्दी में जर्मनी में ईसाई उपदेशक जॉन ऑफ़ लीडन ने ऐसा पहला समाज बनाने का प्रयत्न किया था जो कि साम्यवादी था और जो महाविनाश से बच जाएगा| साम्यवादी और नाज़ी अपने आप को सेकुलर मानते थे जहाँ पर परमेश्वर के लिए कोई स्थान नहीं था| नास्तिक और ईसाई इस बात पर बहुत विवाद करते हैं क्यों इन सभी विचारधाराओं ने हालाँकि रिलिजन को अस्वीकार कर दिया था पर उन्होंने एक ऐसे कट्टरपन को जन्म दिया जो और भी अधिक सरगर्म था| इसका उत्तर क्या हो?
पूर्व रूढ़िवादी चिन्तक जॉन ग्रे के ‘ब्लैक मास’ को पढ़ कर हमें इस रोचक तथ्य का पता चलता है कि कैसे बीसवीं शताब्दी के प्रजातिसंहार सम्बन्धी विचार शताब्दियों के ईसाई सहस्त्राब्दिवाद, परलोक विद्या और महाविनाश के विचारों पर टिके हुए थे| समाज की समस्याओं का समाधान यूटोपिया था| दानवों को इस धरती से मिटा देना चाहिए, नष्ट कर देना चाहिए| लूथर के लिए कभी-कभी निशाने पर कैथोलिक हुआ करते थे पर यहूदी तो हमेशा ही निशाने पर रहते थे| जकोबिंस के लिए पहले तो शत्रु कुलीन लोग थे परन्तु बाद में सभी वर्ग हो गए थे| साम्यवादियों के लिए यह वर्ग और प्रजाति थे| नाजियों के लिए गलती थी गलत प्रजाति में जन्म लेना, और इस प्रजाति को डीएनए से नहीं जाँचा जाता था (जिसकी तब तक खोज ही नहीं हुई थी) परन्तु वे पीढ़ियों पहले के सिनागोग दस्तावेजों को जांचते थे यह देखने के लिए कि किसी सुनहरे बालों वाले, और नीले आँखों वाले पुरुष का खून तो उनमें नहीं है| अतातुर्क के लिए ये शिकार थे अर्मेनियाई, ग्रीक और कुर्द लोग| अतातुर्क की सेकुलरवाद की ललक और टर्की को ओटोमन साम्राज्य के मलबे में से उठाकर एक आधुनिक राज्य बनाने की चाह पर कोई संदेह नहीं है| वास्तव में शायद ही कोई संदेह करेगा कि आधुनिक टर्की अतातुर्क की ही देन है| फिर भी ऐसा कर के उसने एक ऐसे विशालकाय जंतु को जन्म दिया जो कि आराम ही नहीं करता| ऐसा करने में वे सेकुलर के अलावा सब कुछ थे| अर्मेनियाई, अश्शूरियों, और ग्रीक लोगों का विनाश और प्रजाति संहार ओटोमन साम्राज्य की जिहाद का ही एक विस्तार था|
कुर्दों के विरुद्ध उसका अभियान उन्हें जबरदस्ती टर्की राष्ट्र के संग एक करने का था| यह केवल उनके मूल अस्तित्व को ही नकार देने से संभव था| अगर यह असफल हो जाता तो टर्की का सेकुलरवाद उनका सशरीर विनाश करने में भी नहीं हिचकने वाला था| अतातुर्क का सेकुलरवाद हालाँकि फ्रांसीसी जकोबिंस और लेसिस्म से प्रेरित था पर उसके स्वयं के ‘काफिर’ भी थे| इसी धारा में मिस्र के राष्ट्रपति गमेल नासिर के अखिल-अरबिस्म विचार और सीरिया के मिचेल अफ्लाक के बा’थ विचार भी स्पष्ट रूप से सेकुलर थे जिन्होंने अपनी प्रेरणा नीत्शे, लेनिन, समाजवाद, साम्यवाद, फासीवाद और नाज़ीवाद से ली थी – वह अनैतिक प्रेरणा जो पश्चिमी सेकुलरवाद से आयी थी| केवल ‘एक’ ही अस्तित्व में रह सकता था| यह एक या तो प्रजाति हो सकता है या फिर राष्ट्र या वर्ग क्योंकि इस धुंधले सिद्धांत की यही शैतानी प्रतिभा है| समुदाय के बाहर का कोई भी व्यक्ति ‘दास मजदूर कैंप’ में, गैस चैम्बर में जाने योग्य था| उस पर चिकित्सीय परीक्षण किये जा सकते थे और उसे देशनिकाला या फिर मृत्यु के मूंह में धकेला जा सकता था| यह सब सेकुलरवाद के नाम पर| सेकुलरवादियों और नास्तिकों ने यह तर्क दिया कि स्टालिन, हिटलर, माओ और पोल पोत वास्तव में किसी रिलीजियस विकृति के अनुयायी थे और उन्होंने सही में रिलिजन को नहीं त्यागा था| फिर भी ये राक्षस वैज्ञानिक तरीकों के उत्सुक समर्थक थे|
पर सेकुलर अभिनय के बावजूद ये बहुत ही रिलीजियस आन्दोलन थे| अतातुर्क ने इस्लाम के स्थान पर एक और पंथ की अवधारणा दी थी, फिर भी यह उसी रिलीजियस समुदाय के लोगों तक सीमित था और उन लोगों के विरुद्ध अति-हिंसक था जो कि पहले काफिर माने जाते रहे हैं| तुर्कों को केवल अनातोलिया का मूल निवासी ही नहीं बताया गया, पर उनको सूर्य की भाषा बोलने वाला बताया गया, वह मूल भाषा जिससे बाकी सभी मानव भाषाएँ निकली हैं| बा’थिस्ट सेकुलरवाद अपनी ही विचारधारा के बंधनों से बंधा था और इस्लाम के प्रति समर्पित था| अफ्लाक ने अपने अरब-ईसाई समर्थकों से कहा कि न केवल वे अखिल-अरबिस्म को समर्थन दें और इस्लाम के मूल सिद्धांतों और पैगम्बर मुहम्मद को मानें बल्कि खलीफत नामक उस महिमा को भी मानें जो अरब साम्राज्य का चरम था| इसने बा’थिस्म के ‘सेकुलरवाद’ को सीमित कर दिया था| यूरोपीय एनलाइटनमेंट को अनदेखा कर के बा’थ पार्टी को पारंपरिक इस्लामिक रीति-रिवाजों को और अरबों के इतिहास में स्थान के साथ कोई समझौता नहीं करना पड़ा| अफ्लाक ने इस तरह इस्लाम को अरब राष्ट्रवाद की जीन की तरह प्रयोग में लिया| हिमलर ने SS को ट्यूटनिक नाइटस (Teutonic Knights) के ऊपर प्रतिदर्श किया जिन्होंने पेगन स्लाव लोगों पर ईसाइयत को ग्यारवीं शताब्दी में थोपा था और रोमन कैथोलिक पंथ, जेसुइट्स (Jesuits) पर भी प्रतिदर्श किया था| नाज़ीवाद के भीतर परलोक विद्या प्रभावी लुथेरन परंपरा से ली गयी थी| हिटलर हमेशा सर्वनाश के उन्माद में बात करता था जो मध्य युग की याद दिलाता था|
बोल्शेविक प्रबुद्ध वर्ग जिस संयमी आत्मानुशासन और कट्टरपन से ‘काफिरों’ को सताते थे उससे वे सन्यासी जैसे लगते थे| राज्य अपने सेकुलर वर्गीकरण में चर्च की तरह संरचित था जिससे कि क्रेमलिन का संपर्क कम्युनिस्ट पार्टी और अधिकारी-वर्ग के हर छोटे से छोटे सेल से था और वह अपने पवित्र प्रतिरूपों मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन पर भी संरचित था| पीड़ितों का दानवीकरण उस शब्दावली के प्रयोग से होता था जो कि रूसी ऑर्थोडॉक्स ईसाइयत के लोकसाहित्य की आस्था से ली गयी थी| फ्रांसीसी क्रान्ति जो इन सभी की सेकुलर व तर्कवादी मान के रूप में मानी जाती है भी तर्कवाद का स्त्रोत नहीं थी जैसा कि अक्सर दावा किया जाता है| फासीवाद और साम्यवाद की तरह वह एक ‘नया मानव’ बनाने का प्रयत्न था एक ऐसे कट्टरपन के साथ जो कि चरित्र में रिलीजियस हो| वास्तव में रॉब्सपियरे ने क्रान्ति की तुलना इस्लाम से की थी| ईसाइयत को तो हटा दिया गया था पर उसका स्थान एक अनिश्चित तर्क, राष्ट्र और भाईचारे ने ले लिया था| पर अब राज्य भगवान् बन गया था और यह सत्ता को वैध बनाता था| जोर्जेस सोरेल जो कि एक फ्रांसीसी चिन्तक थे और श्रमिकसंघवाद (जो कि समाजवाद को उसके फासीवादी संतान से मिलाता था) के जनक थे, ने १९०८ में एक पुस्तक लिखी Revolution Sur La Violence| उन्होंने मजदूरों को आम हड़ताल करने के आदर्शवादी मिथक को उस तरह अपनाते हुए पाया जिस तरह प्रारम्भ के ईसाई जीसस की वापसी के विचार को अपनाए हुए थे|
मार्क्स क्राइस्ट की तरह ही एक मसीह थे| और Das Kapital अंतर्भासी ग्रन्थ था| इससे कोई अंतर नहीं पड़ता था कि उसका समाजविज्ञान निरर्थक था| अन्तः रिलिजन गलत होने के बाद भी जनता को एक करने के लिए काम आता था| कमर तोड़ देने वाली एक आम हड़ताल का श्रमिकसंघवादी विचार एक रूप में क्राइस्ट के पुनः आगमन का ही दूसरा स्वरुप था| इस मिथक को ही भारत के ‘सेकुलरवादियों’ ने आयातित किया है और इससे किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए| इन में से अधिकतर मार्क्सवादी हैं और मार्क्सवादी शिक्षा व्यवस्था के उत्पाद हैं| उन्होंने भारतीय संस्कृति के विरुद्ध कई पूर्वाग्रह बना लिए हैं जिनके बारे में मार्क्स सुस्पष्ट थे: यह पिछड़ा हुआ है, अंधविश्वासी है और देश को विदेशियों के राज के लिए उर्पयुक्त बनाता है| इसके साथ अगर अल्पसंख्यकों को मध्युगीन नेताओं के पैरों तले भेज कर उनके तुष्टिकरण के विचार को जोड़ दें तो यह एक विस्फोटक सामजिक स्थिति बन जाती है| और क्या कारण हो सकता है कि शाही बुखारी अपने आप को सेकुलर कहे और साथ ही साथ यह मांग भी करे कि देश में शरिया कानून होना चाहिए और ‘अपमानजनक’ पुस्तकों को प्रतिबंधित करना चाहिए? यह तो सेकुलरवाद नहीं है| ऑल इंडिया क्रिस्चियन कौंसिल अपनी वेबसाइट पर कहती है कि वह दो चीजों के लिए बिना किसी समझौते के समर्पित है: सेकुलरवाद और क्राइस्ट की संप्रभुता| पद में विरोधाभास के इस उदाहरण को सुनकर हम वोल्तैर को अपनी कब्र में हिलते हुए अनुभव कर सकते हैं| किसी भी हाल में ऐसा मिशन वक्तव्य पश्चिमी सेकुलरवादियों के लिए उपहास का विषय होगा और वैकल्पिक हास्य की तरह माना जाएगा|
फिर भी भारत में ‘सेकुलर’ शब्द का अर्थ कुछ भी गैर-हिन्दू अथवा हिन्दू विरोधी होता है| रिचर्ड डॉकिंस को हम कम से कम यह श्रेय दे सकते हैं कि वे हर उस वस्तु को सार्वजनिक क्षेत्र से प्रतिबंधित करने को कहते हैं जो उन्हें अंधविश्वासी लगती है, भारत में सेकुलरवादी इस नियम को केवल हिन्दुओं पर थोपते हैं और उन रिलीजन्स को पवित्र मानते हैं जो सदियों से बड़े स्तर पर नरसंहार, दासता और मानव रंज के उत्तरदायी रहे हैं| उन्होंने इसी कारण से सेकुलरवाद को एक बाई-प्रोडक्ट की तरह निकाला है आवश्यकता के समय पर जीवित बने रहने के लिए| उनकी कम प्रतिभाशाली संतान ने अभी तक नहीं देखे गए स्तर पर संहार करने के लिए फिर भी मध्य-युगीन ईसाइयत की परम्पराओं का सहारा लिया|
परिणामस्वरूप यूरोप में ईसाइयत के बाद वाले समाज भी उन आस्थाओं के ऊपर अपने आप को बनाते रहे जिन्हें उन्होंने अस्वीकार कर दिया था| ईसाइयत विचारों की उस संरचना के लिए उत्तरदायी है जिसके अनुसार यह माना जाता है कि मनुष्य दूसरे जीवों से किसी तरह भिन्न है| केवल एक ‘वही’ वाला रिलिजन ही इस विचार की कल्पना कर सकता था और अब इसे वैज्ञानिक तर्कवाद द्वारा अपना लिया गया है| हालाँकि यह कई महामारियों के खतरों को लेकर आया जैसे कि बर्ड फ्लू और स्वाइन फ्लू| न्यू यॉर्क में वेस्ट नील वायरस का उभरना यह इंगित करता है कि प्राकर्तिक वर्ल्ड से हमारा डीएनए उससे अधिक मिलता है जितना कि हम सोचते हैं| एक ऐसा समाज जो पूरी तरह ईसाइयत के सिद्धांतों को छोड़ चुका है वह उन सिद्धांतों को भी छोड़ देगा जो कि सेकुलर विचार के आधार हैं|
ईसाइयत पूर्व के यूरोप में सेकुलर और पवित्र में कोई अंतर नहीं था| प्राचीन ग्रीक, रोमन, केल्ट अथवा नॉर्स लोगों से इन शब्दों में बात करने का कोई अर्थ ही नहीं था| दूसरी बहुदेववादी संस्कृतियों की तरह विश्व बहुदेववादी था| इनका वियोग सेंट ऍगस्टीन के ‘मनुष्य के नगर’ और ‘परमेश्वर के नगर’ के बीच में भेद करने से प्रारम्भ होता है| सेकुलरवाद ईसाइयत की विरासत है और इसका एकेश्वरवाद के बाहर कोई अर्थ नहीं है क्योंकि ईसाइयत-पूर्व यूरोप की तरह बहुदेववादी संस्कृतियाँ रहस्यवादी दार्शनिकों के साथ सौहार्द के साथ रही हैं| इसके विपरीत सेकुलर पंथ शुद्ध रिलीजियस सिद्धांतों से गढ़े गए हैं जिसका अर्थ है कि जब वे रिलिजन को दबाने का प्रयत्न करते हैं तो वह दूसरे और वीभत्स रूप में वापस आ जाता है|
भारत के सेकुलरवादी उन पिछड़े हुए और धुंधले रिलीजियस विचारों का समर्थन करते हैं जिनके कारण यूरोप में सेकुलरवादियों और मानवतावादियों ने विद्रोह किया था और थर्टी इयर्स वॉर हुआ था| इतना ही नहीं ये सेकुलरवादी अपने आत्मतुष्ट विचारों के किसी भी विरोध को हिन्दुत्ववादी फासीवाद कहते हैं| यह विचार फासीवाद की उत्पत्ति की ओर नहीं देखता जो कि मध्य-युगीन चर्च और उसकी प्रतिनिधि सेकुलर संतान में है| इसीलिए जहाँ नाजियों ने ईसाइयत को अस्वीकार कर दिया था, उसके कई पहलु उसने अंगीकार कर लिए थे और उनका प्रयोग किया था, जैसा कि जेरूसलम की हिब्रू यूनिवर्सिटी के रोबर्ट विस्त्रिख अपनी पुस्तक Hitler’s Apocalypse में बताते हैं|
“नाज़ीवाद प्रारम्भ से ही एक राजनैतिक रिलिजन अथवा वह परलोक विद्या था| ईसाई मुद्राओं पर आधारित पवित्र तंत्रों का प्रयोग करता था तब भी जब उसने उसका आध्यात्मिक अर्थ नकार दिया और उल्टा कर दिया था| लोगों के मसीहा के रूप में फ्यूहरर की भूमिका ईसाई उद्धारक का हास्य चित्र था| Kampfzeit के अपने प्रारम्भिक भाषणों में, विशेष रूप से कैथोलिक बवेरिया में, हिटलर ने अपने उद्धारक सिद्धांतों को जीसस के सिद्धांतों से मिलाया| हिटलर के स्वयं के अनुसार क्राइस्ट ने एक महान विश्व-आन्दोलन खड़ा किया था, लोगों को राष्ट्रवादी आदर्शवाद से भरा हुआ एक यहूदी-विरोधी पंथ पढ़ाकर| राजनैतिक क्षेत्र में हिटलर समान परिणाम लाना चाह रहा था| तब भी जब वह अन्दर ही अन्दर ईसाइयत के विरुद्ध हो गया था और उसके मूल्यों को पूरी तरह उखाड़ फेंकने को कहा था, नाज़ीवाद ने अपनी रूढ़िवादी थियोलोजी उस गहरी-जड़ों वाली आस्था से विरासत में ली थी जिसके अनुसार मानव मुक्ति में प्रमुख बाधा यहूदी ही थे, ‘चुने हुए लोगों’ के शरीर में एक शाश्वत काँटा|
नाज़ी सहस्त्राब्दीवाद मध्य युगीन ईसाई पूर्वजों जैसे कि जोअकिटिक युक्ति, ‘सुधार’ का एनाबैप्टिस्ट धरा और उन्नीसवीं शताब्दी के जर्मन चिंतकों जैसे कि फिख्ते, हेगेल और शेलिंग जैसे जोहनीन ईसाइयत से उद्धृत होता है| नाज़ीवाद और साम्यवाद उसी पश्चिमी घोल का परिणाम हैं जिसका परिणाम सेकुलरवाद है| फिर इस हालत में फासीवाद शब्द का हिन्दू धर्म के प्रत्यक्षीकरण के लिए प्रयोग करना कितना बेवकूफी भरा है| सही में तो भारत के सेकुलरवादी फासीवाद की किसी भी धारा के निकट हैं बजाय कि राजनैतिक हिन्दू धर्म के| वास्तव में सेकुलरवादी साझी विचारधारा और आध्यात्मिक भ्रातत्व रखते हैं| उनकी प्रतिस्पर्धा और जुगुप्सा उन भाइयों जैसी है जो एक दूसरे से प्रवक्ता और उस एकेश्वरवादी सर्वशक्तिमान परमेश्वर के चुनिन्दा लोग बनने के लिए लड़ रहे हैं| बिना किसी संदेह के एक एकेश्वरवादी पंथ होने के कारण सेकुलरवाद हिन्दू संस्कृति अथवा दूसरी प्राचीन संस्कृतियों को समझ ही नहीं सकता| सही में तो वह इसका शत्रु है और इसीलिए भारत के सेकुलरवादी शरिया कानून का समर्थन करते हैं एक सेकुलर जनतांत्रिक भारत में| और वे कश्मीर और केरल में जिहाद का समर्थन करते हैं और उड़ीसा और उत्तर-पूर्व भारत में इवेंजलिकल आतंकवादियों के ईसाई क्रूसेड का समर्थन करते हैं| वे माओवादी उग्रवादियों के द्वारा बलात्कार और नृशंस हत्या का समर्थन करते हैं और पाकिस्तान के द्वारा पोषित इस्लामिक आतंकवादियों के द्वारा किये गए मुंबई हमलों के सरगना के लिए दया की प्रार्थना करते हैं| ‘मानवाधिकार’ की शिष्टोक्ति के तले ये हिन्दुओं को दबाने का ही तरीका भर नहीं है|
उनका बहु-प्रसारित ‘उदारवाद’ भी ईसाइयत का ही वंशज है| और ईसाइयत के उग्रवाद, असहिष्णुता और ‘आस्था के शत्रुओं’ से निपटने के तरीके की ही तरह इसके भी तरीके हैं| और इस तरह वे उन उदारवादी मान्यताओं को विकृत करते हैं जिनको वे इवेंजलिकल उन्माद से समर्थन करने का दावा करते हैं| अपने यूटोपिया के दृश्य को फलीभूत करने के लिए सेकुलरवादी अपनी एकेश्वरवादी जड़ों पर जा रहे हैं|
इसके बजाय इसने भारत को ऐसे दलदल में धकेल दिया है जिसमें भ्रष्टाचार, भाईभतीजावाद, पुलिस की क्रूरता, प्रान्तिक शेहरी बलात्कार और जाति की राजनीती व्याप्त है| इसमें हस्तक्षेप करने वाला और एक अयोग्य अधिकार-तंत्र है और इसका वित्तीय तंत्र बचकाना है| जनता के लिए निराशाएं बढती जा रही हैं और उनकी आकंछाएं एक स्वयंसेवी, अन्ग्रेज़िक्रत, पश्चिम-मुखी, सेकुलर विशिष्ट वर्ग द्वारा कुचली जा रही हैं| वे ऐसे प्रमुख नागरिक स्थानों को उनके नाम देने में प्रसन्न होती है जिन्होंने भारत के पूर्वजों का शोषण किया था| उनकी संस्कृति को नष्ट किया था| फिर भी इनके साथ सेकुलरवादी अपने आध्यात्मिक जन्म में जुड़े हुए हैं|
सेंट फ्रांसिस ज़ेवियर का नाम स्कूलों, कॉलेजों और स्मारकों पर जगमगा रहा है| इसके बावजूद भी कि वो एक मनोरोगी राक्षस था जिसने हिन्दू संस्कृति को नष्ट करने के लिए हर संभव प्रयास किया और हिन्दुओं के बढ़ी संख्या में गले काटे| दिल्ली में औरंगजेब के नाम से रोड बनी हैं, जिसका हिन्दू सभ्यता को नष्ट करने का लक्ष्य केवल उस समय की टेक्नोलॉजी की कमी के कारण अधूरा रह गया| क्या कोई यह कल्पना कर सकता है कि इजराइल सड़कों के नाम हिटलर, हिमलर, रिब्बनट्रॉप, गिब्बिल्स और रैन्हार्ड हीड्रिख के नाम पर रखे? यह बहुत ही अपमानजनक और बेवकूफी भरा होगा| फिर भी भारतीय सेकुलरवादियों के लिए आधुनिक, उदारवादी, सहिष्णु भारत केवल वही हो सकता है जो पूर्व के जातिसंहार और धर्मसंहार करने वाले खब्तियों को सम्मान देकर अपनी गरिमा को प्रतिदिन पैरों तले कुचलवाये| इसीलिए अगर भारत को आगे बढ़ना है तो उसे देश में से इस सेकुलरवादी वायरस और एकेश्वरवादी विचार-तंत्रों को समाप्त करना पड़ेगा| यह कैसे संभव है?
सेकुलरवाद भारतीय संस्कृति के साथ असंगत है
‘चर्च में सुधार’ ने लिखे हुए शब्द अथवा ग्रन्थ को ही किसी भी रिलिजन का आधार माना था| यह एक ऐसा सिद्धांत था जिसे एनलाइटनमेंट ने चालू रखा इसके बावजूद भी कि उसने संगठित पंथ और राज्य के चर्च का विरोध किया था| आधुनिकतावाद का यही विचार है जो सभी संस्कृतियों को अलग-अलग डिब्बों में बंद कर देता है| पर सच्चाई कभी भी ऐसी नहीं थी और इस आधुनिकतावादी उपधारणा का फ्रांसीसी उत्तर-संरचनावादी चिंतकों माइकल फोकाउल्ट और जैकस डेरीडा ने खंडन किया है| एक नैतिक और नीतिशाश्त्रीय ढाँचे के बिना यह भी कहा जा सकता है कि यह डिस्टोपियन (यूटोपियन का विपरीत) विनाश की एक रेसिपी है| इसीलिए जॉन ग्रे को एक शून्यवादी कहा जाता है, हालाँकि यूटोपिया को बनाने के प्रयत्नों के अंततः डिस्टोपिया में बदल जाने के सत्य को दिखाने में वे सही हैं|
फिर भी ‘ब्लैक मास’ में वे यह इंगित करते हैं कि भारत और चीन की संस्कृतियाँ इस परलोक विद्या वाले, सहस्त्राब्दिवादी और महाविनाशी ढाँचे के बाहर हैं और एक समय में सभी प्राचीन संस्कृतियाँ ऐसी ही थीं| इसमें वे वोल्तैर की तरह बात करते हैं जो चीनी कन्फ्युशियसवाद को एक सुकर दार्शिनिक वैकल्पिक ढाँचे की तरह देखते थे जो कि पश्चिमी अर्थ में एक रिलिजन नहीं था| फिर भी कन्फ्युशियसवाद ताओ धर्म और बौद्ध धर्म के साथ साथ चलता था| बौद्ध धर्म भारत से ही गया था| यह एक प्राचीन बौद्धिक हलचल थी जिसने एक सुकर नैतिक ढांचा – धर्म – बनाया और मोक्ष के आध्यात्मिक आनंद को प्राप्त करने के लिए एक ऊंचे लक्ष्य को दिया| यह यूटोपिया के ठीक विपरीत है| भारत एनलाइटनमेंट-पूर्व के विश्व का एक हिस्सा है जिसे प्राच्यविद समझ ही नहीं पाए| क्योंकि उनकी अपनी हज़ारों साल की प्राचीन परम्पराएँ एक इर्ष्यालू एकेश्वरवादी परमेश्वर के पैरों तले रौंद दी गयी थीं इसीलिए वे उसे समझने की स्थिति में नहीं थे जिससे उनका सामना पूर्व में हुआ|
यहाँ पर यह आधुनिक पूर्व था| संस्कृति और धर्म भिन्न नहीं हैं| सेकुलरवाद को एक-आयामी बातचीत का ही अभ्यास है और यह तत्व उसने चर्च-सम्बन्धी विश्व से ही लिया है हालाँकि वह इसे अस्वीकार भी करता है| ऐसे किसी तत्व को मौखिक परम्पराओं, आस्थाओं, स्थानिक रीतियों और ऐसे विचारों से बहुत व्याकुलता होती है जो एक दूसरे से उपरी रूप से विपरीत हों| सेकुलरवाद तर्कवाद की चादर ओढने का दावा करता है यह दिखाने के लिए कि कैसे विज्ञान ने ही आधुनिक विश्व को बेहतर बनाया है, जबकि यह उस अंकीय व्यवस्था से ही संभव हो पाया जो प्राचीन भारत से निकली थी| इसका अर्थ है कि पश्चिमी सेकुलर उपलब्धियां प्राचीन हिन्दुओं के प्रति ऋणी हैं| सेकुलर विचारकों में से सबसे शुष्क और गैर-भावनात्मक आयन रैंड ने अपनी पुस्तक ‘Atlas Shrugged’ में अपने हीरो जॉन गाल्ट के द्वारा ‘भारत के रहस्यवादी कीचड़’ की भर्त्सना की है क्योंकि वह व्यक्तिगत स्वार्थ और अतिवादी भोगवाद के मूल्यों को सिखाता है| ये मूल्य १९५७ के बाद के किशोरों में भी देखने को मिले| गाल्ट और उसकी रचियता आयन रैंड ने इस रहस्यवाद को सेकुलरवाद और वैज्ञानिक तर्कवाद का सबसे बड़ा शत्रु माना| पर फिर उन्हें दशमलव और शून्य के सिद्धांत को भी नकारना पड़ेगा, जिसके बिना भविष्य का उनका मैला औद्योगिक जगत ही अस्तित्व में नहीं रहेगा| क्या उनके औद्योगिक मसीहा हेंक रियरडन रोमन अंकों की गणना से स्टील बना लेंगे? अब यह ‘कीचड’ कहाँ है? पर भारत का आकांछावान आधुनिक मध्यम वर्ग और कई वस्तुओं की तरह इस तथ्य को भी नकार देता है|
इसीलिए भारत में ‘सेकुलरवाद’ पुराने विचारों का एक दीवालिया मलकुंड है और इसने अपना औचित्य खो दिया है| इसमें अब केवल नारे ही बचे हैं और यह उन दानवों को भगाने का प्रयत्न करता रहता है जो अस्तित्व में हैं ही नहीं| ऐसा करने में वे ऐसे सच-मुच के दानवों का सृजन करते हैं जिनका भारत के लोग प्रतिदिन सामना करते हैं| जैसे कि पुलिस उत्पीडन, घपले करने वाला भ्रष्ट अधिकारी वर्ग, बेरोजगारी, सृजनात्मकता और उद्यमिता का गला घोंटना| परन्तु सबसे अधिक विडम्बना की बात यह है कि भारत का सेकुलरवाद मध्य-युगीन सुधारवादी ईसाइयत की ही संतान है| यह उन नरसंहारी रिलीजियस मतभेदों का मनोभाजक परिणाम है जिसने यूरोप को थर्टी इयर्स वॉर से तोड़ के रख दिया था| पर इसके साथ ही यह उन्हीं सहस्त्राब्दिवादी विचारों का पुनर्निर्माण है जो कि महाविनाश और अंत-समय की कल्पना करते हैं| इसीलिए भारत में सेकुलरवाद एक बहुत ही रिलीजियस तथ्य है|
भारत में थर्टी इयर्स वॉर जैसा कुछ भी नहीं था| हिन्दू धर्म का सामना करने के लिए सेकुलरवाद का प्रयोग करना ठीक ऐसा ही होगा जैसा कि विलियम शेक्सपियर की कृतियों का अध्ययन कैलकुलस के द्वारा करना| आश्चर्य की बात नहीं है कि इससे बहुत ही निरर्थक आंकड़े सामने आते हैं| भारत में कभी भी वैसे सह्स्त्राब्दिवादी और महाविनाशी विचार नहीं थे जो ईसाइयत में थे| तब यह बहुत विचित्र बात है कि भारत के सेकुलरवादी अपनी विचारधारा का आक्रोश बहुसंख्यकों की आस्था पर निकालते हैं, जो कभी भी कोई समस्या थी ही नहीं| उनकी प्रतिक्रिया १९४७ के विभाजन के कारण हुई हिंसा और मतभेदों को लेकर है| जबकि विस्थापन और संहार भयानक थे पर क्या इसका अपराध हिन्दू धर्म पर थोपा जा सकता है, उस हिन्दू धर्म पर जिसकी ये लोग सेकुलरवाद के नाम पर निंदा करते हैं?
भारत में हर अलगाववादी और आतंकवादी आन्दोलन की जड़ें सहस्त्राब्दिवादी विचारधाराओं में हैं फिर चाहे वे इस्लामिक, ईसाई हों या फिर मार्क्सवादी| यही वो मितला देने वाली विडम्बना है| भारत के सेकुलरवादी पीड़ितों पर ही उन समस्याओं का दोषारोपण करते हैं जिससे वे सबसे अधिक पीड़ित हैं| क्या मुस्लिम-बहुल पाकिस्तान, बांग्लादेश, मलेशिया और इंडोनेशिया में हथियारबंद अलगाववादी हिन्दू आन्दोलन हैं? क्या ये ईसाई-बहुल गुयाना, सूरीनाम, त्रिनिदाद और टोबागो और फिजी में हैं? इन सभी देशों में हिन्दुओं के विरुद्ध पक्षपात होता है और कभी-कभी उन्हें यातना देकर मार भी डाला जाता है| फिर भी सेकुलरवादी हिन्दुओं को ही समस्या बताने में लगे हुए हैं|
यह केवल आत्म-विरक्ति नहीं है बल्कि और गहरी समस्या है| यह विपरीत मूल्यों का मतभेद है और आत्मा के स्तर पर यह ब्रह्माण्डविज्ञान का मतभेद है| हिन्दू और सेकुलर मानसिकता वस्तुतः अलग अलग ब्रह्मांडों के जीव हैं|
हिन्दू धर्म, बौद्ध धर्म और प्लेटो जैसे प्राचीन दार्शनिकों के अनुसार मनुष्य का जीवन एक बड़े ब्रह्मांडीय चक्र का हिस्सा है| सभी प्राचीन संस्कृतियाँ इसी प्रकार थीं| २१ दिसम्बर २०१२ के प्रलय के दिन की मायन भविष्यवाणी की सनक का लेना-देना कोलंबस-पूर्व के मेसो-अमेरिकन ब्रह्माण्ड-विज्ञान से नहीं है| वह तो एकदम सटीक गणनाओं और खगोल्विदीय अध्ययन पर आधारित था| उस मायन अध्ययन को पश्चिमी मस्तिष्क के विकृत लेंस के द्वारा देखा गया था| रिलीजियस और सेकुलर चश्मे विकृत हैं और ये अंत-समय और महाविनाश के परिद्रश्य की कल्पना करते रहते हैं| आश्चर्य की बात नहीं कि पहले की सभी भविष्यवाणियों की तरह यह भविष्यवाणी भी झूठी साबित हुई| ईसाइयत ने यह विश्वास दिलाया कि मानव इतिहास एक प्रयोजनवादी प्रक्रिया है| इस विश्वास को मार्क्स और यहाँ तक कि फुकुयामा ने भी अपना लिया जिसके कारण उन्होंने End of History नामक पुस्तक लिखी| बाइबिल के अध्याय ‘प्रकाशित वाक्य’ (Book of Revelations) में भविष्य के एक विकास प्रक्रिया होने की अवधारणा उतनी ही छिपी है जितनी कि मार्क्सवाद में| वह भले और बुरे के बीच में एक संघर्ष की अवधारणा देता है जिसमें भले की जीत होगी| आधुनिक राजनीती रिलिजन के इस इतिहास की ही निरंतरता है| सबसे महान क्रांतिकारी विप्लव इस लम्बी प्रक्रिया का ही भाग थे जिन्होंने ईसाइयत के ही विघटन को देखा और उसका कारण बने|
विश्व में यूटोपियन परियोजनाओं का मलबा फेला हुआ है| हालाँकि इन्हें सेकुलर शब्दों में ढाला गया है पर ये रिलीजियस मिथकों के ही वाहन थे| साम्यवाद ऐतिहासिक भोगवाद के विज्ञान पर आधारित होने का दावा करता है| नाज़ीवाद वैज्ञानिक प्रजातिवाद पर आधारित होने का दावा करता है वहीँ नव-रूढ़िवादी पूरे विश्व को जनतंत्र और खुले बाज़ार देने का वचन देते हैं| ये सभी उन अंतर्भासी आस्थाओं के ही स्वरुप हैं जिन्होंने पश्चिमी जीवन को आकर दिया ईसाइयत के अंत-समय के सिद्धांत देने के बाद| ये विश्वास इस पंथ के प्रारम्भिक दिनों तक जाते हैं| जीसस के अंतिम दिनों के उपदेशों ने परलोक विद्या को ईसाइयत में बहुत महत्त्वपूर्ण बना दिया था| और यह ईसाइयत की सेकुलर, मानवतावादी, उदारवादी और क्रांतिकारी शाखाओं के लिए भी महत्वपूर्ण हो गया| प्लेटो ने स्वर्णिम युग को भूतकाल में ही रखा था – इतिहास से पहले का एक ऐसा समय जो अब कभी भी वापस नहीं आ सकता|
अपनी संस्कृतिक जड़ों पर वापस आ कर ही भारत समाधान खोज सकता है| इसीलिए गुजरात आगे बढ़ गया है और बिहार अभी भी पिछड़ा हुआ है और पंजाब ने एक पीढ़ी को नशीले पदार्थों के सेवन की वजह से खो दिया है| एक आर्थिक सफलता की कहानी बनकर गुजरात वह बन गया है जो भारत को बनना चाहिए| एक ऐसा स्थान जहाँ सभी के पास सुअवसर हो बिना यह देखे कि उनका रिलीजियस/ धार्मिक अथवा सामाजिक वातावरण क्या हो| यह एक ऐसे व्यक्ति – नरेंद्र मोदी – द्वारा बनाया गया है जिससे कि सेकुलरवादी और एकेश्वरवादी इवेंजलिस्ट दोनों ही बराबर से घृणा करते हैं| इससे कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए| मोदी ने समृद्धता लाई है भारत की मूल संस्कृति और परम्पराओं का बिना किसी शर्म के उद्धरण कर के| उसने यह किसी बौद्धिक रूप से खाली और निर्यातित कल-के-छोकरे जैसी विचारधारा सेकुलरवाद का समर्थन करके नहीं किया है| भारत को इस विचित्र मान्यता की कभी भी आवश्यकता नहीं थी क्योंकि इसने विस्वास, भक्ति और जीवन शैलियों के के तंत्रों को अपने में समेटे रखा था|
गृहस्त और साधू दोनों को यहाँ स्थान मिलता है| संस्कृत के ग्रन्थ बहुत ही तकनीकी और गहरे हैं| वहीँ कई भक्ति ग्रन्थ बहुत ही साधारण स्थानिक भाषा में लिखे गए हैं| भारतीय परंपरा ने कभी भी किसी अप्राप्य यूटोपिया को पाने का प्रयत्न नहीं किया है क्योंकि यहाँ पर यह ज्ञान था कि ऐसा प्रयत्न करने से अराजकता और आदिम जंगलीपन ही फैलेगा| यही धर्म का सिद्धांत है जो कि आवश्यक नैतिक ढांचा प्रदान करता है| ऐसे तंत्र को हम उसके परिणामों से ही सबसे अच्छी तरह माप सकते हैं – जैसे कि औद्योगिक क्रान्ति और वैज्ञानिक प्रक्रिया की विजय| पर विज्ञान के कारण धर्म नहीं आया| बल्कि वैज्ञानिक मील के पत्थरों को पाने में धर्म का हाथ था| इसीलिए प्राचीन हिन्दुओं ने शून्य और दशमलव का अविष्कार बिना किसी औद्योगिक क्रान्ति और वैज्ञानिक विकास के किया जैसा कि हम मान के चलते हैं| मानव विकास कभी नहीं हो पाता अगर उन्मुक्त चिन्तक अपनी आरामदायक स्थिति से नहीं निकलते और सेकुलरवाद के वैज्ञानिक सज्ञान का दावा नहीं करते तो|
भारतीय सेकुलरवाद की रिलीजियस जड़ें
“भारत की वृहद् और शांत तत्वमीमांसा अब हमारे सामने है: उसका ब्रह्माण्ड, उसकी सामाजिक व्यवस्था जो अपने समय में उत्तम थी और आधुनिक समय के अनुसार अनुकूल होने योग्य है; वे समाधान जो वह नारीवाद के लिए देता है, परिवार, प्रेम, विवाह के लिए देता है; और अंत में कला का उसका अद्भुत प्रकाश| भारत की आत्मा अपनी इमारत के प्रारम्भ से अंत तक एक संप्रभु संयोग की ही उद्घोषणा करती है| यहाँ असहमति है ही नहीं| सभी कुछ अनुकूल है| जीवन की सभी शक्तियों को एक वन के रूप में रखा गया है, जिसके हजारों हिलते हुए हाथ नटराज के हैं, नृत्य के प्रभु| हर वस्तु का एक स्थान है, हर जीव का एक कार्य है और सभी इस दैवी कार्यक्रम में भाग लेते हैं, अलग अलग स्वरों से, और अपनि असंगति से भी, हेराक्लाईटस के शब्दों में एक सबसे सुन्दर व अद्भुत स्वर-संगति| दूसरी ओर पश्चिम में कोई ख़ास वस्तु कड़े तर्क के द्वारा अलग-थलग पड़ जाती है| उसे बाकी जीवन से अलग कर उसे आत्मा के एक निश्चित और सुस्पष्ट डब्बे में बंद कर देती है| भारत जिसे आत्माओं और दर्शनों की प्राकर्तिक विभिन्नता का सदैव आभास था उन्हें एक साथ बाँधने का प्रयत्न करता है, जिससे कि संपूर्ण ऐक्य अपनी दोषहीन सम्पूर्णता में पुनः बन सके|” रोम्याँ रोलेंड, साहित्य में नोबेल प्राइज विजेता
एनलाइटनमेंट चिन्तक चाहते थे कि ईसाइयत को विस्थापित कर दिया जाए पर इसमें वे तभी सफल हो सकते थे जब कि वे उन आशाओं को पूरा करें जो कि उन्होंने ईसाइयत के स्थान पर ला दी थीं| इसीलिए वे असत्यवादी थे क्योंकि ईसाइयत-पूर्व आस्थाएं ये मानती थीं कि, मानव इतिहास का कोई सम्पूर्ण अर्थ नहीं है, कम से कम सह्स्त्राब्दिवाद और परलोक विद्या के स्वरुप में तो नहीं| यह १९३२ में ही पता चल गया था जब अमेरिकी विद्वान कार्ल बैकर ने अपनी पुस्तक The Heavenly City of the Eighteenth Century लिखी और यह खुलासा किया कि एनलाइटनमेंट को बनाने में ईसाइयत का कितना हाथ था| दार्शनिकों ने बस ईसाई विचारों को नया स्वरुप दे दिया| इस विचार के स्थान पर कि इतिहास भले और बुरे के बीच में एक संघर्ष है उन्होंने मानवता को कई स्तरों से निकलते हुए विकास के मार्ग पर चलने के विचार को ला दिया| पर उन्होंने नरकदूतविद्या में अपना विश्वास बनाए रखा| हमको बस यह देखने की आवश्यकता है कि कैसे जकोबिंस, बोल्शेविक, नाज़ी और इस्लामवादी शैतानी शक्तियों पर विश्व की समस्याओं को थोपते हैं और कहते हैं कि कैसे ये अतिदुष्ट तत्व अंत में उनके द्वारा नष्ट कर दिए जायेंगे| जकोबिंस वे पहले लोग थे जो यह विश्वास रखते थे कि आतंक का प्रयोग कर के परमेश्वर नहीं बल्कि मानवता इस विश्व को बदल सकती है| पर जहाँ ईसाइयत का पतन और क्रांतिकारी यूटोपियावाद एक साथ ही होने वाली प्रक्रियाएँ हैं, ईसाइयत के साथ उसकी परलोक विद्या की आस्था को नहीं अस्वीकार गया| इसके बजाय जकोबिंस ने ईसाई वैश्विक मुक्ति का एक विकल्प दे दिया| उन्नीसवीं शताब्दी के जर्मन चिन्तक नीत्शे ने यह पहचान लिया था कि फ्रांसीसी क्रान्ति, समाजवाद और ईसाइयत में एक ही आत्मा है|
मार्क्स और एंगेल्स ईसाइयत को और रिलिजन को आमतौर पर भी सर्वहारा विरक्ति और पूँजीवाद के तले शोषण को लागू करते हुए देखते थे| मजदूर वर्ग के दुखों को जनता की अफीम अर्थात ईसाइयत, अस्पष्ट तृष्णाओं और सपनों के सहारे थोड़ा हल्का बना देती थी| फिर भी मार्क्स ने जर्मन ईसाई दार्शनिक लुडविग फ्यूर्बाख (१८०४-७२) के विचारों को अपनाया जिन्होंने १८४१ में Essence of Christianity नामक पुस्तक लिखी| उन्होंने कहा कि परमेश्वर का ईसाई सिद्धांत असल में बिलकुल वास्तविक मानविक आदर्शों का ही काल्पनिक प्रक्षेपण है| इसीलिए चर्च को स्वयं को सत्य और प्रेम के उत्सव के रूप में, जिसकी सहभागी पूरी मानवता बन सके, अपना पुनर्गठन करना चाहिए| एंगेल्स ने तर्क दिया कि अपने प्रारम्भिक दिनों में ईसाइयत समाजवादी थी क्योंकि वह दासों, किसानों और गरीबों को क्रान्ति के लिए संगठित करती थी| पर इस क्रान्ति को दकियानूसी चर्च ने दबा दिया जिसने सामजिक वर्गीकरण को थोपा और ईसाइयत के मूल समाजवाद को दबा दिया| तो जहाँ पर मार्क्स और एंगेल्स ईसाई समाजवादियों की आलोचना यह कह कर करते थे कि उनमें वैज्ञानिक राष्ट्रीय क्रांतिकारी विश्लेषण नहीं है उनके स्वयं की कार्य-प्रणाली में ईसाई विचारों के चिन्ह थे|
यह हमारे लिए बहुत आवश्यक है क्योंकि भारत के सेकुलर विशिष्ट वर्ग ने मार्क्सवाद को आत्मसात कर लिया है चाहे वे वामपंथी पशु हों या फिर भारत की शिक्षा व्यवस्था से निकली हुई अनुकृति हों| यह सेकुलर विशिष्ट वर्ग संस्कृति स्वयं को ‘उदारवादी’ कहती है, अँधेरे में पड़े हुए अंधविश्वासी जनता के विरुद्ध एक प्रबुद्ध वर्ग| ऐसा करने में वे ‘religio’ को अस्वीकार कर देते हैं, अपने पूर्वजों की हिन्दू संस्कृति को अस्वीकार कर देते हैं| हिन्दू धर्म को ही निर्धनता, घरेलु हिंसा और भारत के पिछड़ेपन के लिए दोष दिया जाता है| अगर लक्ष्य अल्पसंख्यकों में एक सम्मिलित भाव लाना था तो यह लक्ष्य अधूरा रह गया है| वास्तव में इसने उन्हीं एकेश्वरवादी दानवों को बढ़ावा दिया है जिन्हें समाप्त करने के लिए यूरोप का थर्टी इयर्स वॉर हुआ था| जिस अल्पसंख्यक रिलिजन को सेकुलरवाद से उसके ही नाम पर बचाया जा रहा है उसी को सेकुलरवाद की सबसे अधिक आवश्यकता है| मूल्यों की इस अश्लील विकृति में सेकुलरवाद को केवल हिन्दू धर्म पर ही लागू किया जाता है जहाँ पर इसकी आवश्यकता ही नहीं है| थर्टी इयर्स वॉर के विपरीत भारत की प्राचीन परम्पराएँ सफलता पूर्वक बनती, बदलती, सोखती और विकास करती रहीं| वो सेकुलरवादी और NGO जो भारत की असहिष्णुता और उसकी ‘अल्पसंख्यकों’ के संग समस्या पर रोते हैं इस बात से कन्नी काटते हैं कि कैसे पारसी लोग भारत में शरण लेने लाये और यहाँ पर बहुत समृद्ध भी हुए| या फिर कैसे यहूदी, जो कि सेकुलर क्रांतिकारी और उसके रिलीजियस पूर्वज सह्स्त्राब्दिवादी पंथों के दानव हैं, ने पाया कि केवल भारत में ही वे बिना शोषण के संपन्न हो सकते हैं|
भारत का सेकुलर विशिष्ट वर्ग अपने अधूरे मन से अंग्रेजी ठीक तरह से बोलने के प्रयत्नों से और हाल ही में MTV की जनरेशन-X जीवनशैली को अपनाने की होड़ से पहचाने जा सकते हैं| पर सच में ये जड़हीन उदारवादी औपनिवेशिक मानसिकता रखते हैं| १९४७ में मालिक भले ही बदल गए हों पर मानसिकता और भी गहरी हो गयी| राज्य एक कुरूप राक्षस की भाँती जनता का रक्तपिपासु हो गया है और समझदार लोगों को बिना इक्छा उसके लिए वोट करने पर बाधित करता है| नॉर्थ कोरिया की भाँती इसे भी मृत व्यक्तियों की पहचान की आवश्यकता पड़ती है उस पहचान को बनाने के लिए जो उसके जर्जर ढाँचे को बांधे रखे| इसीलिए नेहरु, महात्मा गाँधी और इंदिरा गाँधी के पुतले लगातार उस दिवालिया राजनैतिक वर्ग के द्वारा परेड किये जाते हैं जिसे लगातार इस ढाढस की आवश्यकता है कि वे अस्तित्व में हैं| उनके पहले के शत्रु उनसे बहुत बेहतर नहीं हैं जो बेमेल खाकी सफारी नेकर और एडवर्डियन युग के बच्चों के कपड़े पहनते हैं|
संविधान गणतंत्र के नागरिकों के बारे में कुछ भी कहे, सच्चाई राज करने वालों की और उनकी प्रजा की है| इसको बनाए रखने के लिए पुराने औपनिवेशिक नियम जैसे कि इंडियन पुलिस एक्ट १८६४ अभी भी बने हुए हैं जिन्हें ब्रिटिश राज को सदैव बनाए रखने के लिए बनाया गया था न कि पुलिस को लोगों का कर्मचारी बनने के लिए| इसीलिए उनके जैसा बनने के लिए कई चुलबुल संघ जैसे कि अंग्रेजी वाले, उदारवादी, मानवतावादी और कई अन्य संघ तत्पर हैं| वे मानते हैं कि यह तो आत्म-प्रत्यक्ष है कि वे तर्कसंगत और वैज्ञानिक हैं| फिर भी सच यह है कि यह वैज्ञानिक आधार भारत के प्राचीन गौरव में हैं न कि यूरोप में लगातार चल रहे किसी रिलीजियस संघर्ष के आशाहीन बाई-प्रोडक्ट में|
भारत में सेकुलरवाद को अस्वीकार करना और एक विकल्प देना
“हमारे लिए प्राचीन भारतीय सभ्यता का सबसे मर्मभेदी पहलु है उसकी मानवता… भारत का हमारा दूसरा प्रभाव रहता है कि इसके लोग जीवन का आनंद लेते हैं| वे इन्द्रियों के सुखों और आत्मा के सुखों दोनों में आनंद लेते हैं… भारत एक उल्लासित धरती था, जिसके लोग, एक जटिल और धीरे-धीरे विकसित होने वाली समाज व्यवस्था में अपना स्थान ढूंढ लेते थे| भारत ने रिश्तों के भलेपन और नेकपन में पुराने समय के किसी भी देश से अधिक ऊंचाई प्राप्त की है| इसके लिए और धर्म, साहित्य, कला और गणित में इसके महानतम उपलब्धियों के लिए एक यूरोपीय विद्यार्थी कम से कम भारत की प्राचीन संस्कृति के लिए अपनी प्रसंशा को लिपिबद्ध अवश्य करेगा|” ए.एल.बाशम, The Wonder that was India
उर्पयुक्त पद भारतविदों में से सबसे बड़े अग्र्गामियों में से एक से लिया गया है जो कि कैनबेरा में ऑस्ट्रेलियाई नेशनल यूनिवर्सिटी में एशियाई सभ्यता के प्रोफेसर थे| बाशम फिर ये भी बताते हैं कि कैसे दूसरी प्राचीन सभ्यताएँ नष्ट हो गयीं पर भारत अभी भी अस्तित्व में है| वास्तव में इन सभ्यताओं को सेकुलरवाद के उन रिलीजियस पूर्वजों द्वारा पैरों तले कुचल दिया गया और नष्ट कर दिया गया| चीन के सन्दर्भ में उसकी प्राचीन संस्कृति को उस सहस्त्राब्दिवादी महाविनाशी यूटोपियन शक्ति ने लगभग समाप्त कर दिया जिसे कि माओ सभी रिलीजन्स के विरोध में बताता था|
पर यह केवल आध्यात्मिक मंडल में ही नहीं था| भारत ने पत्थर को तराशने में अद्भुत तकनीक का विकास किया था| दिल्ली के पास महरौली का लौह स्तम्भ इसका प्रमाण है जो केवल एक टुकड़े से बना है और ४ मीटर से भी अधिक ऊंचाई का है| १५०० वर्ष से भी पुराने इस स्तम्भ में अभी भी जंग नहीं लगती है यह इतना उत्कृष्ट है| हिन्दू ब्रह्माण्ड विद्या एक ऐसे ब्रह्माण्ड की कल्पना करती है जो कि एक चक्र में बनता और बिगड़ता रहता है| वास्तव में और ब्रह्माण्ड भी हैं| पाँचवी शताब्दी में आर्यभट्ट ने प्रतिपादित किया कि धरती सूरज के चारों ओर घूमती है और अपनी धुरि पर भी घूमती है| ग्रहणों को अच्छी तरह समझा जाता था और सटीक रूप से विवरण भी दिया जाता था| सत्रवीं और अठारहवीं शताब्दी में जयपुर और दिल्ली में सटीक आकाशलोचन केंद्र बनाए गए| जिससे यह पता चलता है कि प्राचीन परम्पराएँ खोई नहीं थीं| आर्यभट्ट ने पाई का मान भी ग्रीक गणितज्ञों से अधिक सटीकता से निकाल लिया| भास्कर ने बारवीं शताब्दी में वह खोज निकाला जो हिन्दू आध्यात्मिकता सदैव से जानती थी, कि अनंत अनंत ही रहता है चाहे उससे कितने का भी भाग दे लो| भास्कर ने सातवीं शताब्दी में ब्रह्मगुप्त और नवीं शताब्दी में महावीर के साथ वे गणितीय खोज करीं जो कि यूरोप में पुनर्जागरण तक नहीं हो सकीं| पर सबसे महत्वपूर्ण मील का पत्थर है अज्ञात रूप से लिखी गयी बाक्षाली पांडुलिपि जो चौथी शताब्दी की एक प्रति थी जिसमें एक प्राचीन गणितग्य ने दशमलव के अंकों और शून्य के सिद्धांत को प्रतिपादित किया था| ए. एल. बाशम ने The Wonder that was India के प्रष्ठ ४९८ पर लिखा है:
“इस सन्दर्भ में भारत ने पश्चिम को जो ऋण दिया है उसको कहने में अतिश्योक्ति नहीं हो सकती| वे सभी महान खोजें और अविष्कार जिनका कि यूरोप को बहुत गर्व है उस गणित के पद्दति के बिना असंभव होतीं, और यह स्वयं असंभव होता अगर यूरोप रोमन अंकों के दुष्कर तंत्र में फंसा रहता तो| उस अज्ञात मानव ने जिसने इस नए तंत्र को बनाया, वह विश्व की दृष्टि से बुद्ध के बाद भारत का सबसे महत्वपूर्ण पुत्र है|”
योग और ध्यान उस समग्र औषधि विज्ञान की नींव थे जिसको हम आयुर्वेद कहते हैं और जो पश्चिमी देशों में अधिकाधिक स्वीकृति पाता जा रहा है जिन्होंने एनलाइटनमेंट को अपना लिया था| शरीरविज्ञान की जानकारी से प्राचीन भारत ने सीज़रियन संभाग सहित शल्य चिकित्सा को विकसित किया जो अट्ठारवीं शताब्दी तक हड्डी बैठाने और प्लास्टिक शल्यचिकित्सा में यूरोप से बहुत आगे रहा था| ईस्ट इंडिया कंपनी के शल्य चिकित्सकों ने भारतीयों से राइनोप्लास्टी सीखी| और गन्ने, घरेलु मुर्ग, कपास, चावल और शतरंज के रूप में भारत के बाकी मानवता को बहुत सारे उपहार हैं| और ये सभी उस मानसिकता और प्राचीन सभ्यता से आते हैं जिसे भारत का सेकुलर विशिष्ट वर्ग पिछड़ा हुआ, दुरः और पश्चिमी उदारवादी मूल्यों के बिलकुल विपरीत मान कर घृणा करता है| कई प्रकार से ऐसा है भी| पर इस पिछड़ी हुई संस्कृति के बिना उनका सेकुलरवाद और उदारवाद कुछ अलग-थलग उन्मुक्त और विसम्मत विचारकों का ही गढ़ रह जाता|
दशमलव अंक प्रणाली के बिना औद्योगिक अग्रगामी समाज और अर्थव्यवस्था पर इतना प्रभाव नहीं डाल पाते जिनता कि उन्होंने डाला| भारत के शून्य के अविष्कार के बिना संगणना होती ही नहीं| ये सभी उपलब्धियां हिन्दू मस्तिष्क की देन थीं| सेकुलरवाद इनके बारे में सोचता ही नहीं और इसीलिए जिस वैज्ञानिक तर्कवाद को वे अपना केंद्र मानते हैं वो कभी अस्तित्व में ही नहीं आता| अगर भारत का सेकुलर विशिष्ट वर्ग अपनी आत्म-विरक्ति से बाहर आ जाता है तो न केवल देश अपनी प्राचीन जड़ों तक वापस पहुँच जायेगा वह एक तकनीकी रूप से विकसित जनतांत्रिक समाज की ओर भी बढेगा जो बहुत समय से वांछनीय है| उदाहरण के तौर गुजरात है जिसका नरेन्द्र मोदी के नेत्रत्व में कायापलट हो गया है| वहाँ पर हिन्दू-विरोधी सेकुलरवाद और उसकी खोखली नारेबाजी को छोड़ दिया गया है और ऐसी नीतियों को अपनाया गया है जिनसे समाज के सभी वर्गों को लाभ हो रहा है और वह विकास और निवेश को बढ़ावा देता है| मोदी सेकुलरवाद के संवृत्तिभीत बंधनों से ब्लैकमेल नहीं हुए हैं और उन्होंने आधुनिकतावाद के तर्कवादी रास्ते को अपनाया है| इसमें उनकी नीतियां पश्चिम के प्रधान वैज्ञानिकों से मेल खाती हैं जिनके मत रिचर्ड डॉकिंस के इवेंजलिकल नास्तिकता तले दब गए हैं|
जूलियस रॉबर्ट ओपनहाइमर (१९०४-१९६७) एक दार्शनिक, रूड़ीमुक्त, स्वछंदभावी थे और मेनहट्टन परियोजना में सैद्धांतिक भौतिकविद थे| उनका बहुत प्रसिद्द कथन है: “वेदों तक पहुँच एक ऐसा विशेष लाभ है जो इस शताब्दी में है इससे पहले वाली शताब्दियों की अपेक्षा| मानव समझ के आम विचार जिन्हें कि परमाण्विक भौतिकी की खोजों से हम जानते हैं पूरी तरह अपरिचित नहीं हैं| हमारी संस्कृति में भी उनका इतिहास है और बौद्ध और हिन्दू विचार में यह बहुत अधिक है और इसका केन्द्रीय स्थान है| आधुनिक भौतिकी में हम जो पायेंगे वह निर्दशन, एक प्रोत्साहन, एक परिष्कार होगा पुराने विवेक का| पश्चिमी सभ्यता के सबसे भयावह वैज्ञानिक उपलब्धि को भगवद गीता द्वारा हमें दिए गए सबसे चकित कर देने वाले कथन का संसर्ग भारत का सबसे महान साहित्यिक स्मारक है|”
तो क्यों एक ऐसा बुद्धि संपन्न वैज्ञानिक जिसने सबसे विनाशकारी हथियार का अविष्कार किया ऐसी धार्मिक रूढ़िवादी टिप्पणी करेगा? ओपनहाइमर यहीं पर नहीं रुका| १९३३ में उसने संस्कृत सीखी और भारतविद आर्थर डब्ल्यू. राइडर, बर्कले से मिला| फिर उसने भगवद गीता पढ़ी मूल संस्कृत में और बाद में कहा कि वह उसके जीवन दर्शन को प्रभावित कर देने वाली पुस्तकों में से एक है| उसके विश्वासपात्र और सहकर्मी और नोबेल पुरूस्कार विजेता इसिडोर रबी ने इस पर अपना विश्लेषण दिया:
“ओपनहाइमर उन क्षेत्रों में आवश्यकता से भी अधिक शिक्षित थे जो कि वैज्ञानिक परंपरा से बाहर हैं जैसे कि धर्म में उनकी रूचि और खासतौर पर हिन्दू धर्म में जिससे कि ब्रह्माण्ड के एक रहस्य की भावना होती थी जो कि उन्हें एक धुंध की तरह ओढ़े हुए थी| वे भौतिकी को बहुत अच्छे से देखते थे उस पर जो पहले ही किया जा चुका है, पर सीमा पर उन्हें यह अनुभव होता था कि जितना दिखता है उससे कहीं अधिक रहस्यवादी और नवीन वहाँ है… वे सैद्धांतिक भौतिकी के कठोर, अशिष्ट तरीके से हटकर वृहद् अंतर्ज्ञान के रहस्यवादी क्षेत्र में चले गए|”
लोस एलामोस में वैज्ञानिकों के कार्य से पहला कृतिम नाभिकीय विस्फोट अलामोगोर्दो के निकट 16 जुलाई, १९४५ को किया गया| ओपनहाइमर ने बाद में बताया कि विस्फोट को देखते हुए, एक पवित्र पुस्तक का छंद उन्हें याद आया:
“आकाश में हजार सूर्यों के एक साथ उदय होने से उत्पन्न जो प्रकाश हो, वह भी उस विश्व रूप परमात्मा के प्रकाश के सदृश कदाचित् ही हो॥”
वर्षों बाद उन्होंने बताया कि एक और पंक्ति उनके मस्तिष्क में उस समय आयी थी: “कालोस्मि लोकाक्षयकृतप्रवर्धो लोकंसमाहर्तुमिहा प्रवृत्तः॥”
इसको उन्होंने अनुदित किया: “मैं मृत्यु बन गया हूँ, संसारों को नष्ट करने वाला|”
१९६५ में, एक दूरदर्शन के प्रसारण के लिए वे इसको उद्धरण करने के लिए फिर तैयार हो गए:
“हम जानते थे कि विश्व अब पहले जैसा नहीं रहेगा| कुछ लोग हँसे, और कुछ रोये भी| अधिकतर शांत थे| मुझे हिन्दू ग्रन्थ भगवद गीता में से एक पंक्ति याद आयी: विष्णु राजकुमार को इस बात पर मना रहे हैं कि वह अपना कर्तव्य निभाये और उसे प्रभावित करने के लिए वे अपनी कई-भुजाओं वाली आकृति ले लेते हैं और कहते हैं, “मैं मृत्यु बन गया हूँ, संसारों को नष्ट करने वाला|” मुझे लगता है कि हम सब कुछ ऐसा ही सोच रहे थे|”
टेस्ट के दो दिन पहले ओपनहाइमर ने अपनी आशाओं और भयों को व्यक्त किया भगवद गीता एक श्लोक को उद्धृत कर के:
“युद्ध में, वन में, पहाड़ की खड़ी चट्टान पर, गहरे महान सागर में, भालों और तीरों की वर्षा के बीच में, नींद में, व्याकुलता में, शर्म की गहराइयों में जो अच्छे कर्म मनुष्य ने किये हैं वही उसे बचाते हैं|”
अब यह हो सकता है कि यह केवल एक वैज्ञानिक थे – मुख्य दृश्य से थोड़े हटकर एक छोटे से विषयांतर की भाँती| पर वे अकेले नहीं थे| एर्विन श्रोडिनजर (१८८७-१९६१) एक ऑस्ट्रियन सैद्धांतिक भौतिकविद थे और यूरोप के कई विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर रह चुके थे| उन्हें क्वांटम यांत्रिकी के लिए १९३३ में नोबेल पुरूस्कार मिला था| हिटलर युग में उन्हें अपदस्थ कर दिया गया था उनके नाज़ी विचारों के विरोध के कारण और वे इंग्लैंड भाग गए थे| वे Meine Weltansicht के लेखक थे और उन्होंने तरंग यांत्रिकी का प्रतिपादन किया (अचल और समय-आधारित श्रोडिनजर समीकरण) और रीतिवाद और आव्यूह यांत्रिकी के अपने विकास की पहचान को उन्होंने प्रकट किया| उनको वेदांत में पूरे जीवनभर रूचि रही जिसने उनके अनुमानों को What is Life? में इस बात पर प्रभावित किया कि वैयक्तिक चेतना पूरे ब्रह्माण्ड में फैली हुई एकल चेतना का ही एक प्राकट्य है| रिलिजन की शब्दावली में देखें तो श्रोडिनजर एक नास्तिक ही कहे जायेंगे| अपनी प्रेमिका फेलिशी क्राउस के सम्बन्ध में उन्होंने एक विवाह-प्रस्ताव को भी खो दिया, केवल उनके सामजिक स्तर के कारण ही नहीं बल्कि उनकी नास्तिकता के कारण| वे एक ऐसे उन्मुक्त विचारकों में से जाने जाते थे जो परमेश्वर में विस्वास नहीं रखते थे| पर इसने श्रोडिनजर को हिन्दू धर्म, बौद्ध धर्म और पूर्वी दर्शन से आम तौर पर एक गहरे सम्बन्ध को रखने से नहीं रोका| उन्होंने पूर्वी विचार पर कई पुस्तकें पढ़ें और कई हिन्दू ग्रंथों का भी अध्ययन किया| वेदांत में उनकी रूचि ने उन्हें एकत्व के विचारों से और मस्तिष्क की एकता के विचार से परिचित कराया और इससे वे क्वांटम भौतिकी और स्पष्ट रूप से तरंग यांत्रिकी से भी जुड़े| १९१८ में उन्होंने कहा:
“निर्वाण आनंदमयी ज्ञान की एक शुद्ध अवस्था है… इसका व्यक्ति से कोई भी लेना-देना नहीं है| एहम और इसका अलगाव एक भ्रम है| वास्तव में एक अर्थ में दो ‘मैं’ एक जैसे ही हैं अगर हम इनके विशिष्ट अंतर्वस्तु जैसे कि इनके कर्मों को हटा दें तो| मनुष्य का लक्ष्य इसके कर्मों को बचाना है और इन्हें और विकसित करना है… जब एक मनुष्य की मृत्यु होती है तब भी उसका कर्म जीवित रहता है और अपने लिए एक नया वाहक ढूंढ लेता है|”
बाद में उन्होंने और विस्तार से समझाया:
“अपने आप में यह अंतर्दृष्टि नयी नहीं है| मेरी जानकारी में सबसे पुराने लेख पत्र २५०० वर्ष पुराने हैं या उससे भी अधिक… आत्मा=ब्रह्म है (वैयक्तिक स्व सर्वव्यापी, सर्व-समाविष्ट करने वाले शाश्वत स्व ही है) यह पहचानना भारतीय विचार में बिलकुल भी निन्दात्मक नहीं था बल्कि यह विश्व की गतिविधियों में गहरी अंतर्दृष्टि के सार का प्रतिनिधित्व करता था| वेदान्त के सभी विद्वानों का प्रयत्न इन शब्दों का उच्चारण करने के पश्चात इन महान विचारों को अपने मस्तिष्क में समावेश करने का रहता था| कई शताब्दियों के रहस्यवादियों ने स्वतंत्र रूप से पर फिर भी एक दूसरे के साथ तालमेल से अपने जीवन के इन अद्वितीय अनुभवों का जो वर्णन किया है उसे केवल इस पदबंध में कहा जा सकता है: मैं इश्वर हूँ| पश्चिमी विचारधारा के लिए यह विचार अनजान है उन प्रेमियों के अलावा जो कि एक दूसरे की आँखों में देख कर उनके विचारों से अवगत हो जाते हैं और उनका आनंद एक हो जाता है, केवल एक जैसा नहीं…”
डॉ. वाल्टर जॉन मूर, जो कि भौतिक रसायनशास्त्री थे और पाठ्यपुस्तक और जीवनी लिखते थे और जिनकी पुस्तक Physical Chemistry (Prentice Hall, 1950) ३० वर्ष से भी अधिक से आदर्श पाठ्यपुस्तक बनी हुई है ने श्रोडिनजर के बारे में १८८४ में कहा:
“वेदांत का एक्य और निरंतरता तरंग यांत्रिकी में दिखती है| १९२५ में भौतिकी को एक बढ़ी मशीन जैसा माना जाता था जिसके कई अलग-करने लायक पुर्जे हैं| अगले कुछ वर्षों में श्रोडिनजर और हाइज़नबर्ग और उनके अनुयायियों ने एक ब्रह्माण्ड का सर्जन किया जो कि तरंगों की अलग न करी जा सकने वाली संभाव्यता वाले आयामों पर आधारित था| यह नया दृष्टिकोण वेदांत के ‘एक में सभी’ के सिद्धांत से मेल खाता था… उन्होंने पारंपरिक रिलीजियस आस्थाओं (यहूदी, ईसाई और मुस्लिम) को अस्वीकार कर दिया था किसी तर्क के आधार पर नहीं और न ही किसी भावनात्मक शत्रुता के आधार पर क्योंकि वे रिलीजियस प्रकटन और उपमाओं को बहुत पसंद करते थे, पर केवल यह कह कर कि ये विचार सरल हैं|”
भारत के पास अब यह विकल्प है कि क्या वह एक सेकुलर राज्य की तरह रहना चाहता है और नेहरुवादियों के १५ अगस्त के आधी रात को स्वतंत्रता के उबाऊ भाषणों के साथ एक सामूहिक हीन भावना से ग्रसित रहने के लिये विवश होना चाहता है? इसकी एक शिक्षा व्यवस्था है जो एक समय में औपनिवेशियों ने बनायी थी और अब उसे मार्क्सवादी चला रहे हैं भारतीयों को दासवत बनाने के लिए, और उन्हें रद्द कर दिए गए सिद्धांत जैसे कि ‘आर्यों की घुसपैठ का मिथक’ सिखाने के लिए और जहाँ पर हर किसी को पश्चिमी पैमानों पर ही खरा उतरना हो| भारत की पश्चिमी यूरोप का या फिर यू.एस.ए. के भाग की तरह कल्पना करना भयावह नाटक हो जाता है जबकि वही राज्य पड़ोसी देश से हमले झेल रहा हो और उसका उत्तर सीमा पर उन्हीं लोगों के साथ मोमबत्ती के उजाले में भोजन कर के करता हो| इसका केवल एक ही विकल्प है, अपने आप में गर्व होना और इस धरती की सबसे प्राचीन सभ्यता का एक हिस्सा होने पर गर्वान्वित अनुभव करना, एक ऐसी सभ्यता जो हर समस्या को पार कर अभी भी जीवित है| एक ऐसी सभ्यता जिसने मानव विचार के हर क्षेत्रे में योगदान दिया और जिसका सम्मान अभी भी पूरे विश्व में किया जाता है जैसे कि योग, ध्यान और आयुर्वेद जैसी पद्दतियां पूरे विश्व में अपनाई जा रही हैं| अगर और कोई सभ्यता अभी तक बची रहती जैसे कि प्राचीन ग्रीक तो भारत की तरह वह भी पूरे विश्व से सम्मान और आकर्षण पाती|
इसीलिए यह अनिवार्य हो जाता है कि हम सेकुलरवाद को अस्वीकार कर दें इतिहास के उस प्रयोजनवादी विकृत रूप को अस्वीकार कर के जिसने हमारी समझ को इतना विकृत कर दिया है| मानवता ने रिलीजियस अथवा धार्मिक होना बंद नहीं कर दिया है| आधुनिक समय सेकुलर मोनोकल्चर का नहीं है जिसमें एक सुवक्त उदारवाद मिला हो| इसके बजाय यह बहुत ही विविध और बहुल है| इस धरती को सेकुलरवाद को निर्देशात्मक सन्दर्भ बिंदु लेकर एक समरूप बनाने का प्रयत्न विफल हो गया है| जहाँ पर ईसाई सहस्त्राब्दिवाद ने भारत के सेकुलरवाद को जन्म दिया है वो अभी ऐसे ही नहीं मरेगा पर फिर भी हमें यह समझना आवश्यक है कि ये सर्वनाश सूचक आस्थाएँ प्रकट कैसे होती हैं: जैसे कि इवेंजलिकल्स, रूपकार रिलीजन्स, वित्तीय ठग-व्यापार, वैज्ञानिक कथाएँ और प्रलय के दिन की कल्पनाओं में| पर विकल्प हैं जैसे कि प्राचीन ग्रीस के प्रोमिथियस के मिथक की तरह| विकास और यूटोपिया सम्बन्धी आधुनिक दुष्क्रियाशील मिथकों के स्थान पर ये मिथक बेहतर मार्गदर्शक हैं उस आधुनिक युग में जिसने अंधविश्वासों से उठकर कर्ज, भोगवाद, स्वार्थ और उत्तरदायित्व न निभाने और सामंजस्य से न रहने के कुँए में डुबकी लगा ली है| प्राचीन हिन्दुओं को पता था कि इससे मानवता फिर से जंगलीपन और अज्ञान के कुँए में जा गिरेगी| इसीलिए कलियुग की अवधारणा हुई| और उन्हें यह भी अनुभव था कि इसे केवल धर्म ही बचा सकता है|
[1] पूरे लेख में तीन सेमिटिक मसीही एकेश्वरवादी पंथों को – Judaism, Christianity and Islam – रिलिजन (religion) कहा गया है, और बाकी सभी को – जैसे कि हिन्दू धर्म, बौद्ध धर्म और सभी पेगन और बहुदेववादी धर्मों को धर्म कहा गया है| इसका कारण है कि रिलिजन और धर्म दो बहुत ही भिन्न वस्तुएं हैं| रिलिजन में एक मसीहा, एक पुस्तक, चुनिन्दा लोग, क़यामत का दिन, एक इर्ष्यालू परमेश्वर और ‘वही’ के सिद्धांत हैं| ये सभी सिद्धांत हिन्दू धर्म जैसे धर्मों में नहीं हैं| और भी कई भेद हैं पर यहाँ पर इतना कह देना पर्याप्त होगा की रिलिजन धर्म नहीं है और धर्म रिलिजन नहीं| इस कारण से इस लेख में तीन पंथों Judaism, Christianity and Islam को रिलिजन कहा गया है और बाकी सभी को धर्म|
[2] Reformation को यहाँ पर ‘चर्च में सुधार’ कहा गया है|
[3] ईसाईयों का एक विशेष समुदाय जो रोमन कैथोलिक समुदाय के विरोध में बना था|
[4] Evangelical का कोई भी सही हिंदी अनुवाद नहीं है| मूलतः Evangelicals एक प्रोटेस्टेंट ईसाई समुदाय है जो कन्वर्ज़न की गतिविधियों को पूरे विश्व में जोर-शोर से चलाता है|
[5] Enlightenment का सटीक शब्दकोशीय अर्थ ‘ज्ञानोदय’ है परन्तु यह एक ऐतिहासिक घटना है जिसका कि रिलीजियस सन्दर्भ है इसीलिए हम पूरे लेख में इसे आगे एनलाइटनमेंट ही कहेंगे|
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